भारतेंदु की वैचारिकता और अंधेर नगरी

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भारतेंदु हरिश्चंद्र को हिंदी साहित्य में आधुनिकता का प्रवर्तक माना जाता है. भारतेंदु स्वयं एक बहुत बड़े नाटककार भी थे. उन्होंने अपने नाटक के माध्यम से देश में व्याप्त अनेकों समस्याओं को देश वासियों से समक्ष प्रस्तुत किया. ‘अंधेर नगरी’ उनका सर्वाधिक महत्वपूर्ण व्यंग्य-नाटक है, जो सत्ता की विवेकहीनता का रूप सामने लाता है.

अंधेर नगरी अंग्रेजी राज का दूसरा नाम है. ‘अंधेर नगरी चौपट राजा’ अंग्रेजी राज्य की अंधेरगर्दी की आलोचना ही नहीं, वह इस अंधेरगर्दी को ख़त्म करने के लिए भारतीय जनता की प्रबल इच्छा भी प्रकट करता है. अंधेर नगरी की प्रचलित लोककथा पर आधारित भारतेंदु के इस नाटक में उत्तर औपनिवेशिक चेतना की स्पष्ट झलक है. यह उपनिवेशवाद का प्रतिवाद है. भारतेंदु ने अंधेर नगरी को पश्चिमी साम्राज्य का रूप दिया है. भारतेंदु ने इस व्यंग्य के तौर पर अंग्रेजी साम्राज्य को अंधेर नगरी की संज्ञा दी है. अंधेर नगरी में भारतेंदु ने महंत के माध्यम से कहलाया है, “बच्चा नारायणदास, यह नगर दूर से बड़ा सुंदर दिखाई पड़ता है.” भारतेंदु दिखाना चाहते थे कि पश्चमी साम्राज्यवादी सभ्यता दूर से इतनी सुंदर दिखाई देती है, पर अंदर से क्या है. ये एक सभ्यता पर टिपण्णी करना चाहते थे, सिर्फ अंग्रेजी राज पर नहीं.

भारतेंदु द्वारा अंधेर नगरी में चित्रित महंत विवेकशीलता का प्रतिक है. भारतेंदु ने महंत की ये विवेकशीलता एक गुरु के रूप में उद्धरित की है. अपने गुरु की आज्ञा न मानकर गोबरधनदास टके सेर मिठाई खाता है और चौपट राज्य की व्यवस्था में फंस जाता है. फांसी पर जब शिष्य को लटकाया जा रहा था तो उसने गुरू का स्मरण किया उन्होंने जो युक्ति सुझाई वही कारगर हुई यानी आज भी होगी। यानि गुरु के महत्त्व को भारतेंदु प्राथमिकता दी है और इस दृश्य के माध्यम से यह भी दिखाने का प्रयास किया है कि शिक्षा एवं ज्ञान के कारण ही हम बड़े-बड़े संकट से बच सकते हैं.

भारतेंदु की वैचारिक दृष्टि सदा आम जनता के उद्धार के प्रति ही रही. अंग्रेजी साम्राज्य से मुक्ति और उनकी अंधेरगर्दी से छुटकारा ही उनकी रचनाओं का प्रमुख विषय रहा. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के शब्दों में, “भारतेंदु का पूर्ववर्ती काव्य साहित्य संतो की कुटिया से निकल कर राजाओं और रईसों के दरबार में पहुँच गया था. उन्होंने एक तरफ तो काव्य को फिर से भक्ति की पवित्र मंदाकिनी में स्नान कराया और दूसरी तरफ़ उसे दरबारीपन से निकल कर लोक-जीवन के आमने-सामने खड़ा कर दिया.” इसके आधार पर भारतेंदु ने अंधेर नगरी में दरबार के उपेक्षा की है और लोक जीवन का समर्थन किया है.

गोबर्द्धन दास के अंधेर नगरी में रूक कर वहां की वस्तुओं का टके सेर भाव में भोग करने के निर्णय के ऊपर भारतेंदु महंत से कहलवाते हैं,

 

“सेत सेत सब एक से, जहाँ कपूर कपास।

ऐसे देस कुदेस में कबहुँ न कीजै बास ॥

कोकिला बायस एक सम, पंडित मूरख एक।

इन्द्रायन दाड़िम विषय, जहाँ न नेकु विवेकु ॥

बसिए ऐसे देस नहिं, कनक वृष्टि जो होय।

रहिए तो दुख पाइये, प्रान दीजिए रोय ॥“

इन पक्तियों में ऐसा लगता है भारतेंदु स्वयं महंत की जगह खुद खड़े होकर जनता से बोल रहे हैं. वे कहते हैं कि जिस जगह पर पंडित और मुर्ख एक समान हो वहां पर रहने वाला केवल दुःख ही पा सकता है. या फिर उसे अपने प्राण भी गवाने पर सकते हैं. जैसा इस नाटक में गोबर्द्धन दास को भोगना भी पड़ा.

भारतेंदु ने अंधेर नगरी के माध्यम से अपनी वैचारिक दृष्टि कानून व्यवस्था पर भी डाली है. क़ानूनी व्यवस्था का प्रतिनिधि राजा को सुनाई नहीं देता, वह ‘पान खाइए’ को ‘सुपरनखा आई’ सुनता है. जब कोई फरियादी उसके पास अपनी फ़रियाद लेकर आता है तो वह उसे अपनी बातो में उलझा कर न्यायिक प्रक्रिया को और लम्बा कर देता है. फरियादी की दिवार गिरने के कारण बकरी मर जाती है. वह न्याय के लिए राजा के पास जाता है लेकिन राजा की न्याययिक प्रक्रिया जाकर गोबर्द्धन दास को फाँसी किस सजा सुनाने पर रूकती है. क्योंकि फाँसी का फंदा उसी के नाप का था. कुछ ऐसा ही दृश्य मन्नू भंडारी द्वारा लिखित नाटक ‘उजली नगरी, चतुर राजा’ में देखने को मिलता जहाँ एक आदमी अपनी समस्या लेकर राजा से पास आता है तो राजा उसे अपनी बातों में उलझा कर बिना न्याय किये वापस भेज देता है. यह कहा जा सकता है कि सवा सौ साल पहले ही भारतेंदु ने वर्तमान की तस्‍वीर खींच दी थी. अंधेर नगरी के अंत में भारतेंदु अपनी बौद्धिकता का प्रमाण देते हुए महंत के माध्यम से चौपट राजा को फाँसी पर चढ़ा कर समाज में परिवर्तन के सुखद संकेत दिए हैं. अंत में भारतेंदु कहते हैं,

“जहाँ न धर्म न बुद्धि नहिं, नीति न सुजन समाज।

ते ऐसहि आपुहि नसे, जैसे चौपटराज॥“