उपासना के दो चरण जप और योग

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उपासना और पार्थिव पूजन के लिए कितने कर्मकाण्डो का प्रचलन है जैसे तीर्थयात्रा, देवदर्शन, स्तवन, पाठ, षोडशोचार, प्ररिक्रमा, अभिषेक, शोभायात्रा, श्रद्धांजली, किर्तन आदि विभिन्न प्रचलन है पर उच्चस्तरीय साधना के मूल रूप से दो ही तरीके है पहला जप और दूसरा ध्यान।

भारत ही नहीं सम्पूर्ण विश्व मे साधना के लिए किसी न किसी रूप मे इन्हीं दो का सहारा लिया जाता है। साधना कि अन्तिम स्थिति में शारीरिक या मानसिक कोई काम शेष नहीं रह जाता मात्र अनुभुति, संवेदना भावना तथा संकल्प शक्ति के सहारे विचार रहित शून्यावस्था प्राप्त कि जाती है इसी अवस्था को समाधी या तुरीयावस्था कहा जाता है, या इस अवस्था को इश्वर और जीव के मिलने कि चरम अनुभूति कह सकते है तथा यहा पहुँच ईश्वर प्राप्ति का जीवन लक्ष्य पूरा हो जाता है।

भगवत नाम की रट ही पतन के गर्त से बाहर निकालने के जिए लगायी जाती है। जप का भौतिक महत्व भी है शरीर और मन मे अनेकानेक दिव्य क्षमताये चक्रों,ग्रथियों,भेद और उपत्यिकाओं के रूप मे है जिसे जागा कर कोइ भी व्यक्ति अतीन्द्रिय एवं अलौकिक शक्तियों को प्राप्त कर सकता है और उसका मूल साधन जप है मुख को अग्निचक्र कहा जाता है मूख के अग्निचक्र स्थूल रूप से पाचन का, सूक्ष्म रूप से उच्चारण का और कारण रूप से चेतनात्मक दिव्य प्रवाह उत्पन्न करने का कार्य करती है, वही ध्यान एक ऐसी विद्यया है जिसकी जरूरत हमें लौकिक और अलौकिक क्षेत्र दोनो में पड़ता है।

ध्यान का जितना सशक्त बनाया जाये वह किसी भी क्षेत्र मे उपयोगी है। असंतुलन को संतुलन में बदलने के लिए ध्यान से बढ़कर कोई उपाय नहीं है। असंख्य विषेशताओं और क्षमताओं वाली मानवीय सत्ता के कण-कण में भरी है, दशों इन्द्रिया जादू कि पिटारी है ओर मन ग्यारहवीं है, ऐसे में ध्यान से ही सभी को एकाग्र किया जा सकता है उपासना के क्षेत्र में ध्यान साकार और निराकार दो प्रकार के कहे गये हैं। एक भगवान की अमुक मनुष्याक्रिती को मानता है तो दूसरा प्रकाश पुंज को। वास्तविक नजर से दोनों ही साकार है, ध्यान का एक मात्र उदेश्य भगवान और भक्त के बीच एकात्मक भाव कि स्थापना करना है। ध्यान के यू तो कई विषिश्टतायें हैं पर मूल रूप से ध्यान का उपयोग कर हम लोकिक और पारलौकिक प्रगति के अनेक व्यवधान दूर कर अपने जिवन को सेतुलित कर सकते है।