भारत में भटकती पुलिस व्यवस्था और न्याय को तरसता आम आदमी

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यद्यपि भारत में प्राचीन काल से ही विधि की सर्वोच्चता रही है। सुदृढ़ गुप्तचर सेवा की सहायता से कानून को दूरस्त रखने की परम्परा भी बहुत पहले से चली आ रही है। दोषी व्यक्तियों को दण्ड का विधान भी भारतीय कानून व्यवस्था में पुलिस की छवि बर्बरता व प्रताड़ना की तथा न्यायिक छवि दोगुलि छवि के रूप में जानी जाती है।

वर्तमान संदर्भ की बात करें तो आप किसी भी थाने में जाकर गुहार लगाये या न्यायलयों में न्याय की भीख मांगे, बदले में आप ही आरोपित हो जायेंगे या फिर इस तरह प्रताडि़त होंगे कि आपकी अन्तर्रात्मा भी आपके इंसान होने पर आपको धिक्कारेगी। दुर्भाग्य से भारतीय परिदृश्य में नागरिकों की सुरक्षा करने के बजाय

पुलिस उनके ऊपर अत्याचार करने वालों में एक सबसे बड़ी संस्था है। देश के बहुत से भागों में पुलिस अपने-आप में ही कानून बन गयी है। यह पुलिस बल सामान्य नागरिक वर्ग का अनुयायी एवं भ्रष्ट पुलिस बल ही राजनीतिक वर्ग की सेवा करता है।

वस्तुतः किसी भी देश की पुलिस व्यवस्था, कानून के प्रत्यावर्तनों का आवश्यक एवं प्रभावकारी माध्यम होती है। आज यदि वह प्रभावकारी नहीं है तो इसका विशेष कारण है पारदर्शिता का अभाव रहा है, जब तक जनता पुलिस को अपना मित्र नहीं समझती, तबतक उसके साथ सहयोग की बजाय उससे भयभीत ही रहेगा। यर्थात तो यह है कि पुलिस के उच्च अधिकारी तथा सत्ता में लिप्त राजनीतिज्ञ दोनों ही पुलिस को उसके अतीत से मुक्त नहीं करना चाहते, क्योंकि दोनों ही समान रूप से अपराधों और अन्याय में संलग्न हैं। देश में दिन प्रति दिन अपराध बढ़ रहे हैं चोरी, हत्या, डकैती, लूटपाट तो साधारण बात है।

पुलिसिया जुल्म की शिकार औरतों के साथ-साथ बच्चे भी हो रहे हैं। अपराधियों का मनोबल बढ़ रहा है। अवैध वसूली से लेकर बलात्कारों और अपराधों को अंजाम देने में पुलिस किसी अपराधी से कम खूंखार नहीं है। देश में होने वाले बड़े से बड़े काले धंधे में, जुए में, कच्ची शराब में, वैश्यावृत्ति में, ट्रकवालों से वसूली में, चोरी डकैंती में उनकी बराबर की हिस्सेदारी होती है। चोर-डकैत और अपराधी उनके साथी होते हैं क्योंकि उन्हीं से उनकी कमाई होती है। जबकि निरपराधी व कमजोर वर्ग उनकी बंदूक की नोक पर रहता है क्योंकि उन्हें जेल में ठूँस कर उन्हें अपराधियों का कोटा पूरा करना होता है, तमगे लगाने में इन बेकसूर लोगों की ही अहम् भूमिका होती है।

पुलिस और कानून के ढुलमुल रवैये के कारण ही आज देश में चारों ओर भ्रष्टाचार व्यापक रूप से जड़े जमा चुका है। पुलिस भारतीय जनता के दमन व शोषण का पर्याय बन चुकी है। क्योंकि वर्तमान में पुलिस कानून की नहीं सरकार की नौकर है। सरकार की इच्छानुसार लाचार पुलिस कानून को तोड़ती-मरोड़ती रहती है। सच तो यह है कि पुलिस कर्मचारियों को प्रशिक्षण में दिए जाने वाले तटस्थता, निष्पक्षता, जवाबदेही गरिमा, मानवीय अधिकार, संविधान से प्रतिबद्धता संबंधी नियम कानून सब बेमानी हो जाते हैं। यदि सही अर्थ में आकलन करें तो हम पाते हैं कि इतनी सारी खामियों की वजह अकेली पुलिस ही नहीं। प्रशानिक अधिकारी व राजनीतिज्ञगण तथा सामाजिक ढाँचा भी जिम्मेदार है। अक्क्सर प्रदान की गई तकनीकों का हवाला दिया जाता रहा है जबकि आज पुलिस को ये सभी सुविधायें प्राप्त हो चुकी है। दूसरा राजनेताओं का दबाव, व पैसे वालों का रौब पुलिस को निष्पक्ष कार्य करने में बाधा डालता है।

कुछ अपराधों को छोड़कर अक्सर पुलिसवालों पर कभी पैसे का तो कभी रूतबे का प्रभाव रहता है जिसकी वजह से उनकी भूमिका अक्सर संदिग्ध रहती है। यदि एक ओर पुलिस अपराध और अन्याय का मिश्रण है तो दूसरों और समाज में उसकी साकारात्मक भूमिका से भी इंकार नहीं किसा जा सकता कानून को क्रियान्वित, नई व्यवस्था एवं समाज की स्थापना में सहायता देते हुए पुलिस ने अनेक मसलों पर अपनी उपस्थिति दर्ज करवा कर बाल-विवाह, दहेज व भ्रष्टाचार आदि के निराकरण में सहयोग दिया है।

भारत में जहाँ एक ओर पुलिस प्रशासन का ढ़ांचा बिखर रहा है, लोगों का विश्वास उनकी आस्था समाप्त हो रही है वहीं दूसरी ओर हमारा न्यायिक तंत्र भी भ्रष्ट हो चुका है। काला कोट पहने न्यायाधीश व न्याय के मंदिर कहे जाने वाले हमारे न्यायालय दोनों ही आज समाप्ति के कगार पर हैं।

नैतिक कमजोरियों तथा प्र्याप्त साक्ष्यों के अभावों, पुलिस व प्रशासन की नकारात्मक भूमिकाओं के कारण न्याययिक व्यवस्था जर्र-जर्र हो रही है। वर्तमान समय में न्यायपालिका का संक्रमण काल है। प्रसिद्ध भारतीय न्यायविद सोली सोराबजी के अनुसार तो भारतीय न्यायिक तंत्र ढहने के कगार पर हैं। इसका सबसे बड़ा कारण न्यायाधीशों की कमी और अपराध। जनसंख्या के अनुपात में न्यायालयों की स्थापना और न्यायधीशों की नियुक्ति। भारत में इन दोनों की भारी कमी है और आम जनता न्याय के लिए तरस रही है।

आज भी भारत की जेलों में 80 प्रतिशत कैदी बिना सुनवाई के जेलों में बंद हैं। जेलों में महिलाये बच्चों का जन्म दे रही हैं, युवा वृद्ध हो रहे है नाबालिक बच्चे शक् की बिनाह पर जबरन अपराधी बन रहे हैं, उम्मीदें दम तोड. देती हैं। पर कोई सुध नहीं लेता, न्याय इतना थका देने वाला तथा न्यायिक प्रक्रिया उम्र से ज्यादा लंबी होती है जिसके कारण तारीखों का सिलसिला खत्म नहीं होता, हाँ जिन्दगी जरूर खत्म हो जाती है। न्यायालयों में न्यायाधीशों की कमी ही नहीं है बल्कि कुछ अन्य कारण भी हैं जिसमें आपसी मिलीभगत, अधिवक्ता की सुनवाई पर उपस्थित न होगा, बिना आधार के आरोपियों को बरी होना और निर्दोषों पर दोषारोपण होना आदि भी न्याय व्यवस्था का मजाक उड़ा रहे हैं। यद्यपि न्यायपालिका संविधान और नागरिक अधिकारों की संरक्षक है। लेकिन आम नागरिक के लिए न्याय पाना बेहद खर्चीला और महंगा ही नहीं बल्कि मुश्किल भी है।

भारतीय न्यायिक व्यवस्था में अपराधी को सजा दिलाना अगर असंभव नहीं है तो पूरी तरह से संभव भी नहीं है। गंभीर अपराधों जैसे हत्या अथवा बलात्कार आदि में दोष सिद्धि की दर मात्र 6.5 प्रतिशत ही है हमारा न्यायिक तंत्र अपराधी को तो न्यायिक दृष्टि से देखने में समक्ष दिखता है लेकिन पीडि़त को देखने के लिए उसका दृष्टिकोण बौना हो जाता है। परिणामतः न्यायिक प्रक्रिया की धीमी गति, दुर्लभ न्याय व्यवस्था के कारण एक ओर तो न्याय मिलना असंभव हो जाता है तो दूसरी ओर पुलिस प्रताड़ना के कारण आम नागरिक का जीवन शर्मनाक हो जाता है। जिसके कारण पुलिस प्रशासन और न्याय दोनों ही इस देश में निरर्थक लगते हैं। न्याय और आम आदमी के बीच गहरी खाई है। जिसे पाटना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन भी है। न्याय और न्यायाधीश दोनों ही भ्रष्टाचार की गिरफ्त में हैं।

एक ओर वो साधरण लोग हैं जिन्हें जरा से अपराध या गल्त अवधारणाओं के कारण बरसों जेल की सलाखों के भीतर जीवन काटना पड़ता है, जिनकी पूरी जिंन्दगी इसलिए तबाह हो जाती है क्योंकि या तो उन्हें ये ही पता नहीं होता कि उन्होंने ऐसा क्या जुर्म किया है जिसकी सजा खतम ही नहीं हो रही है। दूसरी ओर वो लोग जो बड़े से बड़े अपराध करने के बाद भी मजे की जिन्दगी गुजारते हैं। तमाम सबूतों के बावजूद भ्रष्ट अधिकारी सरकारी नौकरी पर बने रहते हैं। उन्हें नौकरी से निकालने की जिम्मेदारी जिस ’केन्द्रीय सर्तकता आयोग’ के पास है वो भी ऐसे मामलों में चुप्पी साध लेता है। यदि आम आदमी किसी भ्रष्टाचार को उजागर करता है तो उसकी शिकायत कोई नहीं चुनता। उसे प्रताडि़त किया जाता है, कई बार तो उसके परिवार तक को बदहाली में जीना पड़ता है। क्योंकि हमारे देश में तो हमेशा से कद्दावर और पैसेवालों की ही बात सुनी और समझी जाती है।

हमारे देश की सुरक्षा और व्यवस्था के लिए बनायी गई पुलिस और कानून, आज दोनों ही बिकाऊ है जिसकी वजह से आम आदमी का कानून और पुलिस दोनों से ही विश्वास उठ चुका है। यदि आज कोई भी घटना या दुर्घटना होती है तो लोग मूकदर्शक बने देखते रहते हैं या फिर फंसने के डर से दायें बायें हो जाते हैं, इसका सबसे बड़ा कारण यही है कि कानून की प्रक्रिया इतनी जटिल है कि इसे पूरा करने में शरीर की सांसे कम पड़ जाती हैं और पुलिस वालों के क्रूर व्यवहार और रिश्वत खोर प्रवृत्ति के कारण घर बर्बाद हो जाते हैं।

तमाम सबूतों के बाद भी कोई नेता या बड़ा अफसर जल्दी जेल नहीं जाता क्योंकि एंटी-करप्शन ब्रांच (CB.I) और (C.B.I) सीधे सरकार के अधीन आती हैं। किसी भी मामले में जांच या मुकदमा शुरू करने के लिए इन्हें सरकार में बैठे उन्हीं लोगों से इज़ात लेनी पड़ती है। जबकि साधारण व्यक्ति का नाम लेने भर से पुलिसया जुर्म उस पर टूट पड़ता है, रातों – रात घर से सड़क से उठाकर जेल में ठूस दिया जाता है, बेरहमी से पिटाई की जाती है, दुनिया भर की धाराएं लगाकर उसकी जिन्दगी को नर्क बना दिया जाता है। ऐसे हजारों करोड़ों लोग हैं जो पुलिस और न्यायालयों के उत्पीड़न के शिकार होकर या तो दम तोड़ चुके हैं या मौत जैसी जिन्दगी को ढोये जा रहे हैं। पुलिस थानों में रिर्पोट लिखवाने से लेकर कोर्ट तक में गरीब के साथ अन्याय और शोषण है। आज आजादी के 68 साल बाद भी पुलिस और न्यायलय नेताओं के चुंगल में हैं।

अपराधिक न्याय प्रणाली जब तक नहीं सुधरेगी जब तक पुलिस विभाग के लोग निष्पक्ष एवं सही फेसले नहीं लेंगे राज्यों में अभियोलना निदेशालय अलग से बना है लेकिन यहाँ भी जांच का काम भ्रष्ट पुलिस ही कर रही है।

मामला चाहे दिल्ली पुलिस का हो, या रेलवे पुलिस का जिसके साथ पुलिस शब्द जुड़ा है वह सभी एक ही कतार में खड़े नज़र आते हैं। जिस देश में बहन, बेटियों को देश की, घर की, परिवार की, समाज की नाक समझा जाता है आज पुलिसवालों की वजह से वह सरें बाजार गोलियों से भून दी जाती है, उनके साथ सड़क चलते सामूहिक बलात्कार हो जाता है, आरोपी घटना को अंजाम देकर, सीना चौड़ा करके भाग जाते हैं पुलिस दूर-दूर तक नहीं होती, यदि होती भी है तो मात्र लीपा-पोती करके वह अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ती हुई ही नजर आती है। चोरी, डकैती, आगजनी, हत्या, आत्महत्या आतंकवादी घटनायें क्या ये सारे अपराध पुलिस की नाक के नीचे नहीं होते ऐसा कैसे हो सकता है कि मुस्तैद सिपाहियों के रहते रातों-रात बड़े-बड़े अपराध हो जाते हैं दुकानों शो रूमों के ताले टूट जाते हैं क्या रात के समय ताले टूटने पर आवाज नहीं होती।

सच तो यह है कि हमारे देश में  अपराध और पुलिस एक दूसरे के पूरक हो गये हैं। ऐसे में ’कानून’ शब्द मजाक लगता है क्योंकि कानून लोगों की रक्षा के लिए बनाये गए हैं जब यही कानून लोगों का इनके हितों का भक्षण करने लगे तो कौन विश्वास करेगा? जब देश की रक्षा करने वाली पुलिस ही देश की व्यवस्था में दीमक लगा दे तो बाकी लोगों से कोई क्या उम्मीद लगाएगा।