नक्सलवाद, माओवाद और राजनीति का सिलसिला

Like this content? Keep in touch through Facebook

naxalism naksalwadआज से कुछ एक साल पहले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने नक्सलवाद को देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए एक बहुत बड़ा खतरा बताया था। अगले दिन अखबारों ने उनकी चिंता को सुर्खियों में पेश भी किया। प्रधानमंत्री कुछ नया नहीं बोल गये थे। यह काफी विलंब से स्वीकार किया गया ऐसा सच था जिसकी पूर्ववर्ती सरकारों ने हमेशा अनदेखा किया। सरकारों ने इस समस्या की जड़ में जाने की जरूरत भी महसूस नहीं की जिसका सीधा सरोकार हिंदुस्तान के एक ऐसे बड़े आबादी समूह से रहा है जो सदियों से सामाजिक आर्थिक शोषण का शिकार रहा है।

इस आंदोलन की चिंगारी 1967 में पश्चिम बंगाल के नक्सलवाड़ी इलाके में फूटी थी। यद्यपि कानू सान्याल और चारू मजुमदार के द्वारा प्रारंभ किये गये इस आंदोलन को तत्कालीन मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे ने प्रवलता से दबा दिया। लेकिन आंदोलन की चिंगारी आंध्र प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में पहुंच चुकी थी।

आज 45 साल बाद नक्सलियों को सशस्त्र आंदोलन के चपेट में देश के 14000 पुलिस थानों में से कम से कम 2000 हैं। यह आंकड़े केन्द्रीय गृह मंत्रालय के हैं। देश के छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, उड़ीसा पश्चिम बंगाल, बिहार, झारखंड और महाराष्ट्र के कुछ भाग नक्सलियों अर्थात माओवादियों के रणनीति का हिस्सा हैं जिसे लाल गलियारा कहा जाता है और यह लाल गलियारा ऐसा सुरक्षित मार्ग बनता चला जा रहा है जो माओवादियों को आंध्रप्रदेश से नेपाल तक जोड़ता है। लेकिन पिछले डेढ़ दशकों में माओवादियों ने जिस गति से अपने संगठन, सर्मथन और क्षेत्र का विस्तार किया वह काफी खतरनाक सा है। इस आंदोलन का मुख्य उद्देश्य सशस्त्र आंदोलन के द्वारा प्रजातंत्रिक तरीके से चुनी गई सरकार को अपदस्थ कर सर्वहारा और मजदूरों के सरकार का स्थापना करना है।

अगर माओवादी जनित हिंसा पर गौर करें तो तो उनकी उपस्थिति खतरनाक तौर पर बढ़ गई है। 2000 में पिपुल्स वार ग्रुप ने जन मिलीशिया की स्थापना इसी उद्देश्य से की। 2004 में पिपुल्सवार ग्रुप एवं माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर ने मिलकर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) की स्थापना कर भविष्य के संकेत दे दिये।

उनके भविष्य के संकेत की एक झलक खुफिया एजेंसी के द्वारा जब्त किये गये जून दस्तावेज से मिलती है।

‘‘हम 2050 तक सशस्त्र संघर्ष के द्वारा भारत सरकार को अपदस्थ कर मजदूरों और सर्वहारा के सरकार की स्थापना करेंगे।’’ जून दस्तावेज ने सरकार की नींद हराम कर दी। यह माओवादियों के सशस्त्र संघर्ष अंतिम चरण के शुरूआत की उद्घोषण थी।

naxalites indiaकेंद्र सरकार द्वारा माओवादियों के विरूद्ध अभियान चलाने का निणर्य

   जम्मू-कश्मीर और मिजोरम के बाद ये राज्य संघर्ष के तीसरें केंद्र के रूप में उभरे हैं जहाँ पर  माओवादियों के विरूद्ध सुरक्षा बलों की व्यापक तैनाती हुई हैं। यद्यपि गृह मंत्रालय इस पूरे अभियान को एक साधारण सा मामला बताती रही है। जिस अभियान को “ऑपरेशन ग्रीन हंट’’ के नाम से जाना जाता है। पी॰ चिदंबरम के गृहमंत्री बनने के बाद इस अभियान में काफी तेजी आयी। सरकार ने न केवल तल्ख तेवर दिखायें बल्कि प्रभावित राज्यों के मुख्यमंत्रियों के साथ बैठक कर माओवादियों के विरूद्ध अभियान को साझा रणनीति का हिस्सा बनाया।

माओवादियों के विरूद्ध अभियान के लिये रायपुर, झारखंड एवं प॰ बंगाल में एकीकृत कमान की स्थापना की गई। लेकिन केंद्र सरकार ने जिस साइकोलॉजिकल वारफेयर के साथ माओवादियों के विरूद्ध अभियान को प्रारंभ किया वह उतना आसान भी नहीं रहा है जिसे शायद सोचा नहीं गया। इस अभियान से जुड़ी कठिनाइयाँ और खतरे एक अलग विषय है जिसकी आगे चर्चा होगी। लेकिन केंद्र ने माओवादियों के विरूद्ध अभियान और इस समस्या पर सरकारी सोच में एक आमूलचूल परिवर्तन का संकेत भी दिया। केंद्र सरकार अंततः इस सोच पर ठिठक गई कि मात्र विकास की बातें करने से माओवादी समस्या का उन्मूलन नहीं हो सकता हैं इसे जमीन पर लाना होगा और इसे जमीन पर लाने के लिये आपको सुरक्षा अभियान के द्वारा माओवादियों के प्रभाव क्षेत्र को अपने कब्जे में लेना होगा जिसे वहाँ पर विकास का काम हो सके।

सरकार का मानना है कि माओवादी विकास में बसे बड़े अवरोध हैं क्योंकी उनके प्रभाव वाले इलाकों में विकास होने से उनके समर्थन का आधार खत्म हो जायेगा। आज यद्यपि ऑपरेशन ग्रीन हंट एक लो-की-एफेयर बन गया है लेकिन पिछले साल ऐसा लग रहा था कि देश किसी बड़े युद्ध की तैयारी में है। इस प्रकार से एक विशाल सुरक्षा अभियान की शुरूआत छत्तीसगढ़, झारखंड, प॰ बंगाल, उडि़सा एवं आध्र प्रदेश जैसे राज्यों में हुई। यह एक ऐसे शत्रु के विरूद्ध खतरनाक अभियान है जो दुर्गम इलाकों में रहता है और जिसके ठिकानों का कोई सही अता-पता तक नहीं है।

माओवादी समस्या के संदर्भ में प्रधानमंत्री ने नीतिगत मामलों पर भी परिवर्तन का संकेत दिया। यह सुरक्षा अभियान से इतर सामाजिक और आर्थिक गलतियों को दुरूस्त करने की कोशिश थी। प्रधानमंत्री ने माना की आदिवासी समाज की मुख्यधारा से कट रहा है। उनके इलाके अभी भी अविकसित हैं और वन्य भूमि एवं अन्य पर उनके परंपरागत अधिकारों का हनन हो रहा हैै। प्रधानमंत्री ने माना की प्रशासन और उससे जुड़े लोगों ने आदिवासियों का हरेक स्तर पर शोषण किया है। सरकार ने तीन मामलों पर तत्काल पहल लिया। प्रथम-पंचायत एक्टेंशन इन शेडयुल्ड एरिया एक्ट (पेसा) कानून को प्रभावी तरीके से लागू किया जाये। ग्राम पंचायत को लघु वन उत्पाद का अधिकार दिया जाये।

एक अनुमान के अनुसार इन राज्यों में लघुवन उत्पाद की अनुमानित कीमत तकरीबन 50000 करोड़ रूपये हैं जिसपर आदिवासी समाज का पहला अधिकार बनता है। अभिवाजित मध्यप्रदेश में जब आदिवासियों का हक छीनते हुए सरकार ने केंदु पत्ते के चुनने का अधिकार ठेकेदारों को दे दिया था तब शायद ही किसी को यह आभास रहा होगा कि इस पत्ते से इतनी बड़ी आग लगेगी। केंद्र सरकार ने गत वर्ष ही लघुवन उत्पाद के चोरी से जुड़े हुए देश के विभिन्न राज्यों में लंबित करीब 33000 से अधिक मामलों को समाप्त कर गलती पर प्रायश्चित किया। केंद्र सरकार ने देश के 34 नक्सल प्रभावित इलाकों में सड़क एवं पुलों के निर्माण के लिये 950 करोड़ रूपये की राशि देन का निर्णय लिया।

केंद्र सरकार माओवाद से निपटने के लिये सतत सुरक्षा अभियान के साथ-साथ समाज की मुख्यधारा से कटे आदिवासी ओर पिछड़े इलाकों को विकास की धारा में शामिल करने का प्रयास किया है। इसके साथ सरकार माओवादियों के आत्मसर्मपण और उनके पुर्नवास नीति पर भी काम कर रही है। झारखंड जैसे राज्यों में जहाँ चैबीस के चैबीस जिले माओवाद की चपेट में हैं, वहाँ माओवादियों के आत्मसर्मपण और पुर्नवास नीति के परिणाम उत्साहजनक रहे हैं।

पिछले साल से अब तक हमलोगों ने कई कट्टर माओवादियों का आत्मसर्मपण करवाया है और अब वह समाज की मुख्यधारा में शामिल हो गये हैं। माओवादियों से जंग मात्र बंदुक की ही नहीं है यह विचारधारा की भी लड़ाई है हमें उस आधार पर भी लड़ाई लड़नी होगी।’’ झारखंड पुलिस के पूर्व मुखिया नेयाज अहमद माओवादियों के आत्मसर्मपण से संबंधित ‘‘ऑपरेशन नई दिशा’’ से खासे उत्साहित दिखते हैं।

आप लोगों को जीतिये आप बिना एक गोली दागे सारी लड़ाई जीत लेंगे’’, अहमद जोर देते हैं। दिल और लोगों को जीतने के तरीके पर अभी भी बहस जारी है और इस बात पर भी दिल जीतने के लिये उठाये जानेवाले कदम पिछले कई दशकों के गलती की भारपाई कर सकते हैं जो पुलिस, पदाधिकारी पटवारी और प्रशासनतंत्र ने आबादी के बड़े हिस्से के अधिकारों का हनन कर किया।

पिछले लगभग साढ़े चार दशकों से चल रहा माओवाद जैसा कोई भी भूमिगत आंदोलन बिना व्यापक जन सर्मथन के संभव नहीं है लेकिन जनसर्मथन के कारणों पर एक बहुत बड़ा विवाद और बहस भी है।

माओवाद के उदय और वृद्धि के कारण

माओवाद का प्रभाव खासकर आदिवासी बहुल और अविकसित इलाकों में सबसे अधिक है। खनिज संपदा और प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर इन इलाकों पर पहले से ही औद्योगिक घरानों और भ्रष्ट पदाधिकारियों की नजर रही। फलतः इन इलाकों से खनिज संसाधनों का दोहन औद्गियोगीक प्रगति के नाम पर होता रहा। आदिवासियों की जमीन लुटती रही और अगर पिछले साठ सालों में किसी वर्ग को विस्थापन का दर्द सबसे अधिक झेलना पड़ा तो वह आदिवासी और कृषक समाज ही रहा। ये इलाके पिछड़ते चले गये। ये इलाके भारत के उन इलाकों के लिये तरक्की का सामान जुटाते रहे हैं जिसे प्रगतिशील भारत कहते हैं।

आदिवासियों के वन्य भूमि पर अधिकार समाप्त कर दिये गये। ऐसे में माओवाद का प्रभावी तौर पर उमड़ना स्वाभाविक ही था। ऐसा उस समय भी स्वाभाविक था जब माओवादियों ने जमींदारों के विरूद्ध श्रीकाकुलम में आंदोलन का नेतृत्व संभाला था। तेलंगाना प्रक्षेत्र में जब भ्रष्ट वन पदाधिकारियों ने आदिवासियों को वन्यभूमि के अधिकार से वंचित कर दिया तो माओवाद ने उन इलाकों में पैर पसारना प्रारंभ कर दिया। अपने प्रभाव क्षेत्र को बढ़ाने के लिये माओवादियों ने वह सब करना शुरू किया जो काम सरकार का होता है – श्रम कानून लागू करना, जमीन का बंटवारा, भ्रष्ट पदाधिकारियों को दंडित करना और जब 2008 नक्सलियों के पश्चिम बंगाल के लालगढ़ में घुसने की सूचना मिली तो एकबारगी इस खबर ने सभी को चैंका दिया।

यह खासकर उनलोगों को अधिक परेशान कर गया जो अभी तक यह मान रहे थे कि प॰ बंगाल में माओवाद का अब फिर से कभी भी प्रभाव स्थापित नहीं हो पायेगा। यह आंशिक तौर पर ही था। नक्लवाद के उदय के कुछ एक वर्षों बाद ही प॰ बंगाल में कांग्रेस के स्थान पर वामपंथी दलों की सरकार बनी। सरकार ने आते ही भूमिसुधार हेतु वटाइदारी अधिनियम को मजबूती से लागू कर स्थिति को एक हद तक काबु किया। लेकिन 1990 के दशक के आर्थिक उदारवाद की राजनीति का प्रभाव वामपंथी पार्टियों पर भी पड़ा। बुद्धदेव भट्टाचार्य के नेतृत्ववाली सरकार ने नये उद्योगों को खोलने की पहल की।

उद्योग स्थापित करने के लिये जमीन चाहिये, औद्योगिक घराने औने-पौने दामों में जमीन चाहती थी और जनता देना नहीं चाहती थी। खेती की भूमि तो खासतौर पर नहीं। लालगढ़ इसके लिये तैयार नहीं था। तो फिर उस इंकार की कीमत चुकाने के लिये तैयार रहना था। ऐसा ही हुआ। प॰ बंगाल की सत्ताधारी कम्युनिस्ट पार्टी की सशस्त्र इकाई ‘‘हरमद वाहिनी’’ और राज्य पुलिस ने महीनों तक लालगढ़ पर घेरा डालकर रखा। लालगढ़ का हठीला रवैया सरकार के नाक का प्रश्न हो सकता था लेकिन माओवादियों के लिये यह खुला निमंत्रण था।

2007 में 86 और 2010 में शतक का आंकड़ा पार करना बंगल के लिये खतरनाक संकेत है। देश के ये हलाके अब खतरनाक इलाकों में गिने जाते हैं जहाँ पर एक अलग ही सरकार चलतील है: जनता सरकार। ऐसी सरकार छत्तीसगढ़ के अवुजमाड़ और झारखंड के सारंडा जैसे इलाकों सहित अन्य जगह भी चलते हैं।
 आपका इस जनआंदोलन में स्वागत है, आप जिस सरकार को मनाते हैं उस सरकार ने बहुमत को भुला दिया है, और बहुमत हमारे साथ है।’’ माओवादी प्रवक्ता (झारखंड जोन) राकेश इस आंदोलन के उपर किसी भी बहस के लिये तैयार दिखते हैं। सारंडा के घने जंगलों के बीच बसे मनोहरपुर के इस इलाके जहाँ पर जनता सरकार चलती है वह कुछ आश्चर्य और अविश्वास भी पैदा करता है। क्या माओवादियों की जनता सरकार सचमुच में कोई समानांतर सरकार है है या फिर यह कोई मिथ्यानाम है।

कारण, यहाँ माओवादियों की जनता सरकार के अतिरिक्त और कोई सरकार नहीं है और अगर कोई सरकार है तो वह राँची में है जिसके आला पदाधिकारी सारंडा को दुगर्म इलाका कहते हैं। इन इलाकों में जनता से एक तिरिल गाँव के मार्शल टुडू जनता सरकार को सर्मथन देने के कई कारण गिनाते हैं। ‘‘ठेकेदार ने अत्याचार बंद किया, हमलोगों को जंगल का हक दिया, जनता सरकार जिंदाबाद।’’ टुडू गाँव के बच्चों के लिये स्कूल चलाते हैं और बताते हैं कि सरकार ने इन इलाकों के विकास के लिये कभी कुछ नहीं किया। यह तय कर पाना मुश्किल है और पूछना खतरनाक कि इन माओवादियों को सर्मथन किस आधार पर मिलता है: विचारधारा की भक्ति या फिर भय। लेकिन जो बात खुले तौर पर सामने आयी है वह यह कि जहाँ क्रांति के नारे काम करते हुए दिखाई नहीं दिये वहाँ माओवादियों ने बंदूक का सहारा सर्मथन लेने में किया है।

लेकिन कुछ ऐसे भी हैं टुडू से अलग सोचते हैं लेकिन उन्हें यह नहीं पता कि उन्हें कब और कहाँ बोलना चाहिये। विरोध और विचारधारा से अलग राय रखना मौत का कारण भी हो सकता है। अधेड़ जतरा मुंडा हमें बताते हैं। ‘‘यह कोई सीधी कहानी नहीं है, बहुत खौफनाक हालत है। मेरे पास इस बात के अलावे और कोई चारा नहीं है कि मैं अपने झोपड़े पर लाल झंडा टांग लूँ। उनके पास बंदूकें हैं। लेकिन वह सरकार मुझे कहाँ मिलेगी? इन गाँववालों की स्थिति दो पाटों के बीच वाले मुहावरें से अधिक बदतर है।

हिंदुस्तान के इन अविकसित इलाकों में एक ऐसी लड़ाई चल रही है जिसमें इन गरीब ग्रामीणों के लिये निरपेक्ष रहने की छूट नहीं है।’’ या तो आप माओवादियों के साथ है या फिर पुलिस के साथ। या तो आपको पुलिस मारेगी या फिर माओवादी। और अगर आप निरपेक्ष जैसा कुछ सोच रहें तो दोनों ही तरफ से मरने के लिये तैयार रहिये।

26 वर्षीये तिलेश्वर कुजूर काफी कुरेदने के बाद यह सब बताते हैं। कुजूर झारखंड के लातेहार जिले के मनिका थाना क्षेत्र के निवासी हैं। लेकिन माओवादियों के डर से उन्हें अपना घर छोड़ना पड़ा जो उन्हें अपने संगठन में शामिल करना चाहते थे। ऐसे दजर्नों कुजूर माओवादियों के डर से अपना घर छोड़ चुके हैं। लेकिन कई उनकी जमात में शामिल हो चुके हैं। ऐसा विचारधारा के कारण नहीं बल्कि विवशता के कारण। माओवादियों से मिली एक अदद बंदूक और कुछ पैसे काफी हैं। ये पैसे इसलिये भी काफी हैं क्योंकि उनके लिये रोजगार का कोई साधन नहीं है।

दिन के समय पुलिस का भय और रात में नक्सलियों का खौफ इन इलाकों की एक अलग ही कहानी है। चीजें इनसे काफी दूर है, विकास भी:-

झारखंड-उड़ीसा के बोर्डर पर बसे मनोहरपुर और नोवामुंडी के इलाकों में जन कल्याण योजनाओं के नारों की बाढ़ सी दिखती है। साक्षर बनें, पोलियो के खिलाफ अभियान, छोटा परिवार सुखी परिवार, जंगल बचाये पौधे लगायें, कंडोम का इस्तेमाल में हिचक क्यों, एच.आई.वी. मौत का कारण बन सकती है। भूख भी मारती है लेकिन यह नारा कहीं नहीं लिखा दिखता है। कभी-कभी कहीं से इसकी खबरें आ जाती हैं। इन इलाकों में सरकार की मौजुदगी बस नारों में दिखाई देती है। बहरहाल पेंटर ने अपना काम बखूबी से किया नारे लिखे और चला गया अगली बार वह फिर से कोई नया नारा लेकर आयेगा। तब तक आप उसके सुझावों पर गौर करें।

 बिजली, पानी और सड़क से मरहूम इन इलाकों में इस बात का भी कोई संकेत नहीं मिलता है कि कभी विकास के कोई प्रयत्न भी किये गये। अगर मनोहरपुर एवं नोवामंडी के इलाकों में कुछ हो रहा साफ सा दिखाई देता है तो वह है लौह अयस्क और अन्य खजिन संसाधनों की तस्करी। इसके प्राकृतिक संसाधनों को जम कर लुटा और खसोटा जा रहा है। अगर इन इलाकों में सुलग रहे आग की तपिश महसूस नहीं की जा रही है तो उसके पीछे का संभवतः कारण यह है कि ये इलाके विकास के मानचित्र पर उपेक्षित रहे हैं। इसलिये सारंडा के जंगलों में बसे ऐेसे दर्जनों गाँव हैं जिसके बारे में सरकार को जानकारी नहीं है।

पश्चिमी सिंहभूम जिले के कुल साक्षरता दर 38.92 के विरूद्ध इन इलाकों में साक्षरता की दर शून्य से 9 प्रतिशत से उपर नहीं उठ पाई है। 650 के करीब गाँव की आबादी वाले सारंडा इलाके में मुश्किल से 40 के करीब स्कूल है। ये स्कूल या तो बंद हैं, या फिर नक्सल अभियान में शामिल सुरक्षा बलों के अस्थायी निवास है और बाकी बचे को माओवादियों ने उड़ा दिया है। प्राथमिक चिकित्सा की सुविधा इतनी दूर है कि मरीज पहूँच ही नहीं सकता। भूख, बीमारी और कुपोषण से मौत आम बात है। इन्हीं हालात में माओवाद का इन इलाकों में प्रवेश हुआ।

जहाँ सरकार माओवादियों को आंतरिक सुरक्षा के लिये खतरा बताते हुए इसको खत्म करने के लिये प्रतिवद्ध दिखती है माओवादियों में भी इस सशस्त्र आंदोलन को एक मुकाम पर पहुंचाने की प्रतिवद्धता दिख पड़ती है। सवाल दोनों के प्रतिवद्धता पर खड़े हो रहे हैं। क्या सरकार मात्र बंदूक के जोर पर माओवादियों का सफाया कर सकती है? और, क्या माओवादी चीनी विचारधारा को भारत में सफल बना सकेंगे। दोनों ओर से भयानक लड़ाई छिड़ी हुई है और दोनों पक्षों को अपने अगले मुकाम का पता नहीं और ना ही यह की उनका अगला मुढभेड कहाँ होने जा रहा है। ऐसा मुढभेड़ छत्तीसगढ़ के सुकमा में हुआ था जहाँ माओवादियों ने तकरीबन 76 सुरक्षा जवानों को मार कर अपने खतरनाक इरादों के संकेत दिये थे। माओवादी जीते भी नहीं अैर सरकार ने हार भी नहीं मानी।

इससे पहले भी रानीवोदली में माओवादियों ने करीब 77 पुलिसवालों की हत्या कर दी थी। नक्सलवाद के सिद्धांत उपर से क्रांतिकारी और भव्य जरूर दिखते हैं एक समतावादी समाज की काल्पनिक परिद्धश्य लेकिन इसको जमीन पर उतारने के तरीके खामी और खोट है। यह अपने रास्ते से ऐसे भटक चुकी है कि कल तक माओवादी आंदोलन को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष सर्मथन देनेवाले मानवाधिकारवादी एवं सिविलि सोसाइटी से जुड़े लोग भी माओवादियों को कुछ एक मुद्दों पर सर्मथन देने से हिचक रहे हैं।

जब माओवादियों ने झारखंड के आदिवासी कनीय पुलिस पदाधिकारी फ्रांसिस इंदिवार और बिहार में ही एक अन्य पुलिसकर्मी लुकास टेटे की निर्मम हत्या कर दी या फिर ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस को निशाना बना कर बेकसूरों की जान ली तो माओवादी आंदोलन से सहानुभूति रखने वाले लोग चुप हो गये। सवाल यह भी उठते रहे हैं कि क्या माओवादी चीन की तरह भारत में सशस्त्र क्रांति और तख्ता पलट में सफल होंगें। हिंदुस्तान की मिट्टी और सामाजिक संरचना क्या ऐसी है।

माओवादी अपने इलाकों में मजबूत हो सकते हैं, वो लाल सलाम और क्रांतिकारी गानों के मार्फत यह घोषणा कर सकते हैं कि माओ-त्से-तुंग की सेना जल्द ही शहर को चारों तरफ से घेर लेगी। लेकिन वह सरकार को खत्म कर देने की कूबत नहीं रखते जो वोट के द्वारा चुनी गई है। इन चार दशकों में माओवादी आंदोलन में खास भटकाव देखने को मिला है। माओवादी उन सिद्धांतों से हट से गये जिस सिद्धांत को लेकर उन्होंने लड़ाई छेड़ी थी।

माओवादियों ने बस्तर के अपने अभेघ दुर्ग बस्तर में आदिवासियों के तेंदु पत्ते के चुनने पर प्रतिबंध लगा दिया। वह आदिवासियों को मजदूरी करने से रोकते हैं क्योंकि वह मजदूरी बहुत कम होती है। अंततः इन गरीब आदिवासियो को कुछ नहीं मिलता। इन आदिवासियों को यह नहीं पता कि उन्हें इस लड़ाई के चक्कर में कब तक भूखा और बेरोजगार रहना होगा जिस लड़ाई को कोई अंत नहीं दिखता। ऐसी ही परिस्थिति में 2005 के दौरान छत्तीसगढ़ में सलवा जुदुम आंदोलन का प्रारंभ हुआ था।

यह माओवादियों के विरूद्ध एक प्रतिक्रियावादी आंदोलन था जिसका राज्य सरकार ने माओवादियों के विरूद्ध बखूबी से इस्तेमाल किया। शुरूआती दिनों में छत्तीसगढ़ कांग्रेस नेता महेंद कर्मा द्वारा समर्थित और बाद में भाजपा के रमन सिंह सरकार द्वारा संपोषित सलवा जुदुम पर सुप्रीम कोर्ट ने प्रतिबंध लगा दिया। सलवा जुदुम अब भी है सिर्फ नाम बदल गया है। अब इस से जुड़े लोग स्पेशल पुलिस आफिर कहलाते हैं। जाहिर है इस जंग में दोनों तरफ से आदिवासी ही मर रहे हैं। लेकिन इस जंग जिन लोगों ने अपनों को खोया है उनकी व्यथा से माओवादी परिचित नहीं होंगें। राँची के हरमू में तीन बच्चों के साथ रह रही इंदिवार की पत्नी काफी कुरेदने के बाद कुछ बोलती हैं।

मेरे पति को मारकर माओवादियों ने कौन सी जंग जीत ली? वह तो अपनी नौकरी कर रहे थे। उन्होंने किसी का क्या बिगाड़ा था। वह अपने आप को आदिवासियों का रक्षक कहते हैं आज मैं फटेटाल और परेशान हूँ। उन्होंने मेरा सब कुछ छीन लिया। अपने पति के जीवन के लिये गुहार लगाई लेकिन उन्होंने मेरे पति को बेरहमी से मार दिया।’’

माओवादियों ने उनकी हत्या के बाद माफी माँग ली थी। माओवादी ऐसे मामलों में माफी जरूर माँग लेते हैं- चालाकी भरी इमानदारी। ऐसी ही इमानदारी झारखंड के इमानदार और गरीबों के हक की लड़ाई लड़ने वाले सी.पी.आइ. (एम.एल.) के विधायक महेंद्र सिंह को मारने के बाद माओवादियों ने दिखाई थी। वकौल सिंह झारखंड के ऐेसे विधायक थे जिनको मार कर माओवादियों के गरीबों की आवाज उठानेवाले एक सशक्त आवाज को शांत कर दिया। ऐसा क्यों किया? माओवादियों के पास इस बात को कोई जबाव नहीं है सिवाय यह कहने के की ऐसा गलती से हो गया।

उनके विधायक पुत्र विनोद सिंह साफ तौर पर कहते हैं कि माओवादी आंदोलन उन सिद्धांतों से कोसों दूर जा चुका है जो कभी इसके विस्तार का कारण रहा।माओवादी की जमात में आज  लुटेरे और गुंडे शामिैल हो गए है जो संगठन के नाम पर लेवी वसूलते हैं।

कहीं न कहीं माओवादी ऐसी लड़ाई लड़ रहे हैं जिसके सैद्धांतिक और सामरिक संदर्भ सवालों के घेरे में हैं। अरसे से माओवादी आंदोलन से जुड़े सुरेश सिंह उर्फ वीरवल इन मुद्दों पर चर्चा करने से कटते हैं। ‘‘चर्चा करेंगें’’ वीरवल ने बताया। लेकिन फिर उत्तेजित हो उठते हैं। ‘‘अगर हम यह लड़ाई सैद्धांतिक तौर पर हार रहे हैं तो सरकार हमें इतनी बड़ी समस्या क्यों मानती है?

क्यों हजारों की संख्या में फौज को उतारा जा रहा है और फिर भी सरकार मुंह की खा रही है? वीरवल माओवादी आंदोलन की सफलता के दस्तावेज दिखाते है: 2005 में जहानाबाद जेल तोड़कर माओवादियों को आजाद कराना, 2003 में चाईबासा के वलीवा में 33 सुरक्षा बलों की हत्या और कई अन्य। उनके अनुसार माओवादी आंदोलन पहले से अधिक मजबूत होकर उमड़ा है।

बातचीत से समाधान के रास्ते बंद

पिछली साल जब माओवादी आंदोलन के विरूद्ध सुरक्षा अभियान को हरी झंडी दिखाई गई उस वक्त सिविल सोसाइटी से जुड़े लोगों ने सरकार और माओवादियों पर बातचीत के आधार पर समाधान निकालने के लिये दबाव डाला। दोनों पक्षों ने गंभीरता दिखाई जो नकली और सतही था। गृहमंत्री ने स्वामी अग्निवेश और अन्य को इस संदर्भ में पत्र भी लिखा कि वह माओवादियों को बातचीत के रास्ते पर लायें। यह राजनीतिक रणनीति का हिस्सा था जिसके अन्तर्गत केंद्र यह संदेश देना चाहती थी कि वह बातचीत और समझौते को अधिक तरहीज देना चाहती है। लेकिन माओवादी नेता चेरूकुरी राजकुमार उर्फ आजाद की पुलिस मुढभेड़ में मृत्यु के साथ ही बातचीत के बहाने पूर्णतः बंद हो गये।

आजाद को मृत्यु के लिये सरकार को दोषी ठहराते हुए स्वामी अग्निवेश ने कहा कि आजाद उनके बातचीत के प्रस्ताव को शीर्ष माओवादी नेताओं के देने जा रहे थे जिस दौरान उनकी हत्या हो गयी। वैसे भी पूर्वकाल में आंध्र प्रदेश सरकार द्वारा सन् 2004 में पी.डब्लू.जी. से बातचीत के पहल का नतीजा खतरनाक निकला।

माओवादी विरोधी सुरक्षा अभियान के खतरे और खामियाँ

माओवादियों के विरूद्ध चल रहे सुरक्षा अभियान को समझने के लिये संभवतः यह उचित होगा कि हम इससे जुड़े कुछ सवालों पर चर्चा करें। ऑपरेशन ग्रीन हंट के सुगम मार्ग की पटकथा लिखना कठिन हैं क्योंकि इसके रास्ते काफी दुर्गम हैं और जिन्होंने इस ऑपरेशन को खतरनाक गति दी है वो भी आगे आने वाले खतरनाक मोड़ो से परेशान हैं।

क्या यह पता है कि छत्तीसगढ़ में प्रति चार वर्ग कि.मी. के इलाके की सुरक्षा के लिये सिर्फ एक पुलिस बल है। अगर बस्तर जैसे माओवादी प्रभावित क्षेत्र में क्षेत्रफल और पुलिस का आंकड़ा देखें तो यह नौ वर्ग कि.मी. पर एक पुलिस बल बैठता है। यही हालत झारखंड की है। क्या यह पता है कि अग्रिम दस्तों पर भेजे जाने 10 में आठ जवानों को उन इलाके और आबादी की जानकारी नहीं है जिसे उन्हें जीतने के लिये भेजा गया है।

क्या यह पता है कि संसाधनों की भारी कमी है। आबादी और पुलिस के मानक अनुपात प्रति एक लाख की आबादी के लिये 222 पुलिस बल की तुलना में माओवाद प्रभावित राज्यों में यह आंकड़ा काफी निम्न है। बंगाल में 98, झारखंड में 114 और बिहार में 57।

क्या यह पता है केंद्र सरकार द्वारा नक्सलवादी अभियान के लिये प्रस्तावित 35 बटालियन को खड़ा करने में कम-से-कम तीन साल का समय लगेगा। क्या यह पता है कि देश में जंगल वार फेयर में विशिष्ट टेªनिंग देनेवाली एक मात्र स्कूल छत्तीसगढ़ के कांकेर में हैं। झारखंड जैसे राज्यों में अभी भी जंगल-वार-फेयर के केंद्र खोले जाने वाले बांकी है। बंगाल सरकार ने लालगढ़ के कांड के बाद यहाँ जंगल-वार-फेयर केंद्र खोलने की सोच रहा है। क्या आपको पता है कि पिछले दो साल पहले कांकेर से करीब 5000 जवानों ने प्रशिक्षण प्राप्त किया था लेकिन उनमें से मात्र 800 ही कांउटर इंमरजेंसी में लगाये गये है बांकी के 4200 रायपुर के अति विशिष्ट की सुरक्षा में।

क्या यह पता है कि सुरक्षा बलों के पास रीयल टाइम इंटेलिजेंस का घोर अभाव है। नक्सलियों को अपने इलाकों की भौगोलिक जानकारी होती है। सुरक्षा बल को नहीं। यहाँ तक एक कठोर सत्य है कि नक्सलियों का इंटेलिजेंस सुरक्षा बल से अधिक बेहतर देखा गया है। नक्सली उन्हीं आम जनता के बीच से आते हैं वहीं स्थानीय सुरक्षा बलों को बाहरी समझते हैं। छत्तीसगढ़ के सुकमा में करीब 76 सुरक्षा बलों की नक्सलियों द्वारा हत्या इस पूरे अभियान के ढीले पेंच की ओर इशारा करती है। सुकमा की घटना के पीछे का कारण सुरक्षा तंत्र की शून्य गुप्तचर व्यवस्था रही। सी.आर.पी. एफ के 76 जवान अनायास ही माओवादियों के बिछाये जाल में फंस गये।

माओवादी तकरीबन 1000 की संख्या में थे और तकरीबन तीन घंटे की लड़ाई में सुरक्षा बलों को इतना बड़ा नुकसान पहुंचा दिया। आश्चर्य की बात यह है कि जहाँ पर इस घटना को अंजाम दिया गया वहाँ से कुछ नहीं देखा। ऐसा नहीं हो सकता है कि स्थानीय निवासियों को सामूहिक हत्याकांड के इस पूरे प्रबंध की जानकारी नहीं रही होगीं

क्या यह पता है कि माओवादी प्रभाव में आनेवाले करीब 95 प्रतिशत इलाकों में कच्ची सड़कें तक नहीं है। क्या यह पता है कि बस्तर, दंतेवाड़ा, अबुजमाड़ और सारंडा जैसे इलाकों का हवाई सर्वेक्षण संभव नहीं हो पाया है। करीब 50000 वर्ग कि.मी. में फैला दंडकारण्य जंगल माओवादियों के लगभग कब्जे में है। इन इलाकों की आज तक सेटेलाइट से कोई सही जानकारी मिली है और न ही इन इलाकों के नक्शे की पैमाइश की जा रही है।

क्या यह पता है कि छत्तीसगढ़ के दुर्गम इलाकों में तैनात जवानों के लिये रसद पहुंचाना कठिन साबित हो रहा है। क्या यह पता है कि मुठभेड़ की स्थिति में (ऐेसे इलाकों में) सहायता के लिये अतिरक्त सुरक्षा बल भेजना और फिर घायल जवानों को सुरक्षित निकालना चुनौती कम चमत्कार अधिक है।

लंबे अरसे से नक्सल अभियान पर नजर रखे सुरक्षा विशेषज्ञों का मानना है कि बिना तैयारी के सुरक्षा बलों को नक्सल विरोधी अभियान में झोंक देना भूखे भेडि़यों को न्योता देने के बराबर है। नक्सल अकसर ही गुरिल्ला लड़ाई का तरीका अपनाते हैं और उनकी हमला कर गायब होने जाने की रणनीति सुरक्षा बलों के लिये खासा खतरनाक साबित हुआ है। नक्सली जिन इलाकों में अपना प्रभाव रखते हैं वहाँ पहुंचने के साधन नहीं हैं। पिछले दस सालों से इन इलाकों में न ही सरकार और न ही सुरक्षा एजेंसियों ने प्रवेश करने की जोखिम ली है।

इसी दंडकारण्य के बीच में अबुजमाड़ इलाका है जिसकी भौगोलिक स्थितिएक अबुझ पहेली रही है। गोंड भाषा में अबुजमाड़ का उच्चारण अबुझमाड़ है। माड़ अर्थात पहाड़ों की ऐसी श्रृंखला जिसे आज तक कोई जान नहीं पाया । अबुजमाड़ माओवादियों का सबसे सशक्त और सुरक्षित किला है। अबुजमाड़ को कब्जे में लेना सरकार के लिये इसलिये ही जरूरी नहीं है कि वह माओवादियों के सैन्य अभियान का मुख्यालय है इसलिये भी कि यह ऐसा ऐसा इलाका है जो सभी के लिये पहेली रही है।

सरकार और सुरक्षा तंत्र सत्य के खुलासे से परहेज रखती रही है वह दंडकारण्य के माओवादियों के लिये एक सुखद तथ्य है। वह यह कि अबुजमाड़ को निकट भविष्य में में अपने कब्जे में कर लेना असंभव ही नहीं अकल्पनीय है। अगर सुरक्षा बल माओवादियों को अबुजमाड तक भी समेट दें तो यह एक बड़ी सफलता होगी।

नक्सलवाद और मीडिया रिर्पोटिंग

 माओवादी अभियान का समाचार संकलन हद से अधिक खतरनाक होता चला जा रहा है। झारखंड जैसे राज्यों में युवा पत्रकारों के बीच नक्सल रिर्पोट के लिये एक विचित्र सा जुनून और आवश्यकता से अधिक उत्साह भाव दिखता है। पिछले पांच सालों में माओवादियों के पी.आर. के तरीकों में जबर्दस्त बदलाव देखने को मिला है। कहीं न कहीं माओवादी मिडिया और प्रचार तंत्र का इस्तेमाल बखूबी करते दिखे हैं। मीडिया उनका माध्यम भी बनी है। लेकिन पांच साल पहले माओवादी नेता मीडिया से बहुत अधिक बातें नहीं करते थे।

माओवादी आंदोलन पर पिछले 22 वर्षों से नजर रखे हुए वत्र्तमान में . के झारखंड  संवाददाता  कि नक्सल संबंधी समाचरों को कभी-कभी अतिरेक के साथ प्रस्तुत किया जाता है। मीडिया को तटस्थ रहकर खबरों को देना चाहिये उसकी जगह यहां के पत्रकार रोमांच और रक्त जैसा कुछ प्रस्तुत करते दिखते है।

उदाहरण के तौर पर तमार और खूंटी के इलाकों के बीच नक्सली वारदातों को अंजाम देनेवाले कुंदन पाहन पर यहां के कई स्थानीय न्यूज चैनलों ने आधे घंटे से लेकर एक घंटे तक का प्राइम टाइम इस व्यक्ति के उपर खर्च किया। स्थानीय अखबारें भी इससे संबंधित खबरों से पटी रहती है। लेकिन संगठन (माओवादी) से जुड़े कोई लोग पाहन को लुटेरा और गुंडा मानते है जो संगठन की आर में अपना अपराधिक साम्राज्य खड़ा कर रहा है।

झारखंड में मीडिया कहीं न कहीं सस्ती लेाकपिय्रता और टी.आर.पी. के भवर में फंसी नजर आती है। इसका एक उदाहरण साल 2010 में सिंहभूम जिले के धालभूमगढ़ के वी.डी.ओ. प्रशांत कुमार लायक के अपरहण और फिर रिहाई में देखा जा सकता है। झारखण्ड के एक लोकप्रिय अखबार प्रभात खबर ने तेा लायक के रिहाई का सेहरा अपने सर पर बांधने की कोशिश की और लिखा की ऐसा अखबार के संवेदनशील अपील के कारण संभव हुई। अखबार के पथम पृष्ठ पर मोटे शीर्षक में लायक का व्यक्तव्य कुछ इस प्रकार से छापा गया था। ‘‘प्रभात खबर मेरे लिये भगवान बन कर आया’’ वैसे लायक के रिहाई के समय मीडिया के कई भगवान मौजूद थे, प्रभात खबर के भी पत्रकार मौजूद थे। लेकिन किसी ने ग्राह के चुंगल से आजाद हुए इस गज को अपेन कब्जे में लेकर अपने ऑफिस ले जाने की कोशिश नहीं की।

शायद अखबार का प्रबंधन लायक को एक ऐसे मसाले के तौर पर प्रस्तुत करना चाहता था जो की उसी अखबार के पास था। ऐसा नहीं हो सका क्योंकि लायक के नक्सलियेां के हद से बाहर आते ही पुलिस ने इस अखबारी कोशिश को सफल नहीं होने दिया। लायक का अपहरण या उससे पहले बंगाल में एक थाना प्रभारी  के अपहरण के मामले में कुछ खास चीजें देखने की मिली। नक्सलियों ने मीडिया की माध्यम से अपनी बाते रखी, अपना प्रचार और प्रसार किया और मीडिया की उपस्थिति में अपहृत लोगों को छोड़ा। जहां सुरक्षा बल और गुप्तचर तंत्र नहीं पहुंच पाते हैं ऐसे दुगर्म और वियावन जगह पर मीडिया अपने सम्पर्क सूत्रों के माध्यम से पहुंच जाती है।

 नक्सलवाद पर नजर रखे हुए पत्रकार बताते हैं कि माओवादी के सैन्य संगठन के प्रमुख और संगठन में दूसरे नंबर पर आनेवाले कोटेश्वर राव उर्फ किशनजी उर्फ रामजी उर्फ मास्टर साहब ने मीडिया का बखूबी इस्तेमाल किया है। किशनजी संगठन के उन चंद लोगों में से है संभवतः अकेले भी, जो खास मीडिया कर्मियों से सम्पर्क में रहते हैं। किशनजी समेत अन्य माओवादी नेता का व्यक्तव्य या फिर एक्सक्ल्यूसिन साक्षात्कारों की तो एक समय बाढ ही आ गई थी। ऐसा होने के कई कारण भी है। 1990 के उदारीकण के दौर के साथ देश में निजी चैनलों की बाढ़ आ गई।

बढ़त लेने की होड़ में मीडिया में उत्तेजना भर दी गई। मंत्र यह है किं  दिखता है वही बिकता है तो इसे बेचने में कोई हर्ज नहीं। प्रिंट भी इससे अछूता नहीं रहा है। नक्सल भावनाओें में एक व्यापक उछाल 2007 के समय आया जब झारखण्ड, छतीसगढ़ और आंध्रप्रदेश के माओवादियों का प्रवेश प. बंगाल के लालगढ़ में हुआ था। एक सर्वे के अनुसार 2004 के दौरान नक्सल गतिविधियों से संबंधित कुल 43 खबरें ही आयी थी। 2007 में इसकी संख्या 2287 थी। 2008 में यह 1879 के करीब रहा और 2009-10 में यह 2500 के आंकड़े को पार का चुका था। यह वह वक्त था जब ऑपरेशन ग्रीन हंट की तैयारियां चल रही थी।

लेकिन नक्सल रिर्पोटिंग में मीडिया ने कुछ खास चीजों पर ध्यान नहीं दिया जो संगठन के अंदर-अंदर ही चल रहा है। सतही चीजों यथा माओवाद जनित हिंसा, बंद, शासन तंत्र द्वारा माओवादी आंदोलन को दबाने की रणनीति या फिर इन सबों के उपर उपजे विवाद मीडिया में अधिक छाये रहे। लेकिन माओवादी आंदोलन जिस वर्ग संघर्ष को लेकर चला था के अंदर ही वर्ग और जाति संघर्ष के बीज पनप रहे हैं। कम से कम दो उदाहरण सामने हैं जिसमें माओवादियों के बीच जातिगत संघर्ष की बू आती है।

पहला मामला आंध्रप्रदेश से है जहाँ माओवादी आंदोलन से जुड़े कुछ लोगों ने अंबेडकर और माक्र्स के विचारों का मिश्रण कर एक नये आंदोलन को खड़ा करने की कोशिश की। उनके अनुसार जाति और वर्ग संघर्ष को साथ-साथ लेकर चलना होगा। संगठन में बड़ी जातियों के प्रभुत्व को खुल कर अगर चुनौती नहीं दी गई तो भी बहस की शुरूआत कर ही दी गई। आज संगठन के अंदर भी जातीय संघर्ष जड़ जमा रही है। सन 2010 में बिहार के विधानसभा चुनाव के समय लखीसराय में दो पुलिसवालों का माओवादियों ने अपहरण कर लिया था। उसमें से एक आदिवासी पुलिसकर्मी लुकास टेटे की हत्या कर दी गई लेकिन दूसरे को सुरक्षित रिहा कर दिया गया।

उस वक्त पटना से प्रकाशित हिंदुस्तान टाइम्स में मेथ्यू मेनन की एक खबर छपी थी। माओवादियों के हवाले से छापी गई इस खबर के अनुसार उक्त पुलिसकर्मी की रिहाई एक खास जाति के माओवादी नेताओं के दबाव में हुई चूंकि अपहृत पुलिसकर्मी उस खास जाति से आता था झारखंड के पलामू प्रमंडल में माओवादी संगठन के शीर्ष पर एक खास जाति का कब्जा है।

नक्सल आंदोलन और प्रेस पर बहस काफी बोझिल हो जाती है जब प्रेस को पूंजीवादी, प्रगतिवादी और जनवादी जैसे खेमों में बांट दिया जाता है। कहीं न कहीं यह सच है। करीब डेढ़ दशक भर पहले जब पी.डब्लू.जी. के नेता नालाआदि रेड्डी ने तेलंगाना मामले पर संगठन के दृष्टिकोण को रखने के लिये प्रेस कान्फ्रेंस बुलाया तो उसमें मात्र चार पत्रकार शरीक हुए। मात्र दी हिंदु, डेक्कन हेराल्ड और टाइम्स ऑफ इंडिया ने ही इसे मुद्दे को विस्तार से छापा था। इंडियन एक्सप्रेस में यह अंदर के पन्नों पर छपी थी जबकि अन्य समाचार पत्रों ने इसे गौण कर दिया।

लेकिन छत्तीसगढ़ में जो कुछ भी हो रहा है वह खतरनाक हो रहा है। यहाँ मीडिया दो खेमों में बंटी नजर आती है लेकिन उससे अधिक खतरनाक यह है कि राज्य सरकार येन-केन प्रकारेण मीडिया को नियंत्रित करना चाह रही है। छत्तीसगढ़ विधान सभा ने विशेष जन सुरक्षा कानून बनाकर किसी भी गैरकानूनी संगठन या गतिविधि के रिर्पोट पर प्रतिबंध लगा दिया। इस कानून की धारा दो (ई॰) में यह प्रावधान है कि किसी भी गैरकानूनी संगठन और उसके क्रिया कलापों का शब्द, चित्र या किसी भी माध्यम से रिर्पोट करने पर दो साल की सजा हो सकती हैै।

रिर्पोटिंग के हिसाब से छत्तीसगढ़ खतरनाक बन गया है जहाँ पर हरके कदम पर पुलिस और माओवादियों के खतरे हैं। हिंदसत्त पत्रिका के बीजापुर संवाददाता कमलेश पैकरा को अपनी जान बचाने के लिये भागना पड़ा जब पुलिस और सलवा जुदुम से जुड़े लोगों ने उनपर माओवादियों से संबंधित सूचना देने के लिये वाध्य किया। पैकरा अप्रील 2005 से ही पुलिस प्रशासन के नजर पर थे। सितंबर 2005 में ही जुदुम के कार्यकरताओं ने उनके घर को जला दिया था।

बीजापुर के ही पत्रकार लक्ष्मण सिंह को भी ऐसी परिस्थितियों का सामना करना पड़ा जब उन्होंने पुलिस द्वारा एक महिला को पीटने से संबंधित खबर को छापा था कि छत्तीसगढ़ वी.जे.पी. के सांसद बलिराम कश्यप ने सन 2005 में यह कह कर हंगामा ही मचा दिया था कि वैसे पत्रकार जो माओवादी आंदोलन को महिमा मंडित करते हैं को फाँसी दे देनी चाहिये । छत्तीसगढ़ के कई पत्रकार इस जन सुरक्षा कानून के शिकार बने हैं। एक अन्य वरिष्ठ पत्रकार साई रेड्डी पर इस कानून के तहत कारवाई की कोशिश की गई। 2007 में डाक्यूमेंट्री फिल्म बनाने वाले अजय टी.जी. को महज इसलिये इस कानून के जाल में फंसना पड़ा क्योंकि माओवादियों ने उनका कीमती कैमरा छीन लिया था और उस कैमरे को वापस लेने के लिये उन्होंने अपने संपर्क सूत्रों से माओवादियों से संपर्क साधने की कोशिश की थी।

चेरूकेरी राजकुमार की पुलिस मुठभेड़ में मृत्यु के बाद छत्तीसगढ़ की पुलिस और गुप्तचर तंत्रों ने ऐसे पत्रकारों पर नजर रखनी शुरू कर दी है जो नक्सल से संबंधित खबर करते हैं।

सलमान रावी कहते हैं, ‘‘छत्तीसगढ़ में एक प्रकार का अघोषित सेंसरशिप है। पुलिस और सुरक्षाबल कई तरह से पत्रकारों को जंगल में जाने और समाचार संकलन से रोकते हैं। यहाँ बहुत ही खौफनाक माहौल है। एक युद्ध सी स्थिति है जिसमें कोई भी पक्ष जोखिम उठाने के लिये तैयार नहीं है।’’ असामान्य स्थिति को देखते हुए कई मीडिया संस्थान अपने पत्रकारों को रिस्क रिर्पोटिंग न करने की सलाह दी है।

छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह ने हाल ही में आंतरिक सुरक्षा पर हुए देश के मुख्य मंत्रियों की मीटिंग में जो कुछ भी कहा उससे बहुत सारी बातें स्पष्ट होती है। सिंह ने मीडिया के एक वर्ग पर नक्सल प्रशंसा का आरोप लगाते हुए कहा कि दिल्ली और बाहर से आये हुए कुछ लोग राज्य में चल रहे माओवादी विरोधी सुरक्षा अभियान के संदर्भ में अर्नगल प्रलाप करते हैं और माओवादियों का प्रचार करते हैं।

उनका इशारा बुकर पुरस्कार से सम्मानित उपन्यासकार अरूंधति राय की ओर भी था। दंतेवाड़ा में माओवादियों के गढ़ की यात्रा की जिन्होंने और वाकिंग विद कॉमरेड नाम से एक वृहत लेख लिखा। यह लेख माओवादी आंदोलन के प्रशंसा से लवरेज था। हांलाकि राय के लेख में कल्पना का बहुत सारा पुट था लेकिन उसमें यथार्थ को भी वर्णित किया गया था, ऐसा माओवादी आंदोलन पर नजर रखनेवालों का मानना है। राय का लेख आउटलुक पत्रिका में भी छपा था।

सिंह ने यद्यपि मीडिया पर सेंसरशिप या कड़ी नजर की बात नहीं की लेकिन उन्होंने प्रधानमंत्री से इस संदर्भ में एक विस्तृत नीति बनाने की मांग जरूर कर डाली। सिंह की बातों से ऐसा लगता हे कि वह मैक्सिको के तर्ज पर ही ऐसा कुछ चाह रहे हैं जहाँ की सरकार ने पत्रकारों द्वारा ड्रग माफियाओं के प्रशंसा या ऐसे भाव उत्पन्न करनेवाले रिर्पोट पर रोक लगा दी।

सिंह ने कहा कि जहाँ मीडिया का एक वर्ग पुलिस या सुरक्षाबलों के हाथों मानवाधिकार मामले में छोटी सी भी चूक को परोसने में पीछे नहीं हटते ऐसे लोगों को माओवादियों द्वारा आदिवासियों पर किये जा रहा अत्याचार और नरसंहार की खबरें नहीं दिखती। नक्सल और पुलिस बलों के बीच चल रहे संघर्ष में मीडिया की स्थिति काफी असमंजसपूर्ण है।

यद्यपि इसमें कोई असमंजस नहीं है कि मीडिया को तटस्थ रहकर अपना काम करना है लेकिन उसके प्रतिबद्धता को अपनी तरफ करने की चेष्टा जरूर हो रही हैं। ‘‘नक्सल रिर्पोट एक दोधारी तलवार है। आपको यह देखना है कि कोई आपको प्रचार का माध्यम तो नहीं बना रहा है। अतिरेक, अतिउत्साह और प्रोपेगेंडा को खबरों में स्थान नहीं दिया जाना चाहिये’’। मीडिया पर लगनेवाला यह आरोप कि वह तथ्यों के छानबीन किये बिना रिर्पोट करती है तो यह कहीं-कहीं सही भी है तो कहीं-कहीं गलत भी। झारखंड से ऐसे दो मामले काफी चर्चा में आये थे।

अगर टाडा कानून का सर्वाधिक दुरूपयोग देश की किसी राज्य में हुआ तो वह झारखंड में सर्वाधिक था जब बाबूलाल मरांडी राज्य के पहले मुख्यमंत्री बने। बड़ी संख्या में माओवादी नेताओं पर टाडा कानून के अन्र्तगत कारवाई की गई। तब उस समय दी टेलिग्राफ (अंग्रेजी दैनिक) में सलमान रावी की एक खबर छपी थी। रावी ने लातेहार जिले में टाडा के दुरूपयोग पर खबर लिखते हुए इस बात को उजागर किया कि कैसे ग्यारह साल के एक बच्चे गया सिंह और अन्य उसी उम्र के बच्चों को टाडा के अन्र्तगत माओवादी अभियान में लिप्त होने के आरोप में गिरफ्तार किया गया। कैसे अस्सी साल के एक वृद्ध को पुलिस ने टाडा लगाकर बंद कर दिया। इस खबर का असर यह हुआ कि तत्कालीन गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने राज्य सरकार की पत्र के माध्यम से सिंचाई की थी।

सन 2010 के अन्य मामले में माओवादियों ने अपहृत वीडियो प्रशांत कुमार लायक की रिहाई के बदले न्यायिक हिरासत में बंद 14 लोगों के रिहाई की माँग रखी।तो दूसरे दिन समाचार पत्रों ने खबर को ऐसे छापा कि माओवादियों ने अपने सर्मथक/कैडरों को छोड़ने की माँग रखी है। निश्चय ही समाचार पत्रों ने प्रशासन के पक्ष को ही समझ कर ऐसा लिखा होगा। लेकिन इसके ठीक दो तीन दिनों के बाद दी पायोनियर ने प्रमुखता से एक समाचार को स्थान दिया था।

दरअसल, ये 14 लोग माओवादी नहीं वरन ऐसे गाॅववाले थे जिन्हें पुलिस ने माओवादी सर्मथक बताकर जेल में डाल रखा था। कहीं पर इन्हें माओवादी साहित्य रखने के आरोप में गिरफ्तार किया गया तो कहीं ऐसे ही मनगढंत आरोप लगाये गये। इनसे संबंधित मामलों की पुर्नसमीक्षा के बाद राज्य सरकार ने इस बात को स्वीकार किया था कि पुलिस ने इन्हें मनगढ़ंत आरोपों के आधार पर गिरफ्तार किया। एक लड़की और उसके अस्सी वर्षीय वृद्ध पिता को स्थानीय पुलिस ने नक्सल सर्मथक होने के आरोप में गिरफ्तार किया। सच्चाई यह थी कि उस आदिवासी लड़की के सिपाही पति ने उसे छोड़ दूसरी शादी कर ली। जब वह लड़की पुलिस थाने में इसकी शिकायत दर्ज कराने की कोशिश तो उसके पति ने पुलिस की सांठगांठ से लड़की और उसके पिता को फंसा दिया।

माओवादी आंदोलन को सामरिक तौर समाप्त करना उतना आसान नहीं दिखता है जबतक कि इसके उत्पति के कारण और उसके निदान की कारवाई साथ-साथ न हो। स्वयं गृहमंत्री चिदंवरम ने भी स्वीकार किया है कि उनके पास टोटल मैंनडेट नहीं है। छत्तीसगढ़ के कांग्रेस नेताओं यथा दिग्विजय सिंह और अजीत जोगी ने तो कांग्रेस अध्यक्षा श्रीमती सोनिया गाँधी को पत्र लिखकर अपनी चिंता जाहिर करते हुए कहा कि इस तरह के अभियान से और भी हिंसा जन्म लेगी और पार्टी ‘आम आदमी’ से दूर जो जायेगी।

देश के आंतरिक सुरक्षा के विषय पर बहस के दौरान चिंदबरम ने संसद से जानना चाहा कि सरकार को ऐसी परिस्थिति में क्या करना चाहिये जबकि माओवादी लोकतांत्रिक व्यवस्था और सरकार को बंदूक के सहारे उखाड़ फेंकना चाहते है। चिदंबरम ने जहाँ सिविल सोसाइटी के लोगों को आड़े हाथों लेते हुए सरकार के खिलाफ दुष्प्रचार का आरोप लगाया वहीं उन्होंने माओवादियों के जून दस्तावेज को हवाला देते हुए कहा कि माओवादियों की शांति प्रस्ताव और समझौते में कोई रूचि नहीं है वे सशस्त्र संघर्ष के रास्ते सरकार को गिराना चाहते है।

ज से कुछ एक साल पहले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने नक्सलवाद को देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए एक बहुत बड़ा खतरा बताया था। अगले दिन अखबारों ने उनकी चिंता को सुर्खियों में पेश भी किया। प्रधानमंत्री कुछ नया नहीं बोल गये थे। यह काफी विलंब से स्वीकार किया गया ऐसा सच था जिसकी पूर्ववर्ती सरकारों ने हमेशा अनदेखा किया। सरकारों ने इस समस्या की जड़ में जाने की जरूरत भी महसूस नहीं की जिसका सीधा सरोकार हिंदुस्तान के एक ऐसे बड़े आबादी समूह से रहा है जो सदियों से सामाजिक आर्थिक शोषण का शिकार रहा है।
   इस आंदोलन की चिंगारी 1967 में पश्चिम बंगाल के नक्सलवाड़ी इलाके में फूटी थी। यद्यपि कानू सान्याल और चारू मजुमदार के द्वारा प्रारंभ किये गये इस आंदोलन को तत्कालीन मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे ने प्रवलता से दबा दिया। लेकिन आंदोलन की चिंगारी आंध्र प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में पहुंच चुकी थी।
   आज 45 साल बाद नक्सलियों को सशस्त्र आंदोलन के चपेट में देश के 14000 पुलिस थानों में से कम से कम 2000 हैं। यह आंकड़े केन्द्रीय गृह मंत्रालय के हैं। देश के छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, उड़ीसा पश्चिम बंगाल, बिहार, झारखंड और महाराष्ट्र के कुछ भाग नक्सलियों अर्थात माओवादियों के रणनीति का हिस्सा हैं जिसे लाल गलियारा कहा जाता है और यह लाल गलियारा ऐसा सुरक्षित मार्ग बनता चला जा रहा है जो माओवादियों को आंध्रप्रदेश से नेपाल तक जोड़ता है। लेकिन पिछले डेढ़ दशकों में माओवादियों ने जिस गति से अपने संगठन, सर्मथन और क्षेत्र का विस्तार किया वह काफी खतरनाक सा है। इस आंदोलन का मुख्य उद्देश्य सशस्त्र आंदोलन के द्वारा प्रजातंत्रिक तरीके से चुनी गई सरकार को अपदस्थ कर सर्वहारा और मजदूरों के सरकार का स्थापना करना है।
   अगर माओवादी जनित हिंसा पर गौर करें तो तो उनकी उपस्थिति खतरनाक तौर पर बढ़ गई है। 2000 में पिपुल्स वार ग्रुप ने जन मिलीशिया की स्थापना इसी उद्देश्य से की। 2004 में पिपुल्सवार ग्रुप एवं माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर ने मिलकर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) की स्थापना कर भविष्य के संकेत दे दिये।
   उनके भविष्य के संकेत की एक झलक खुफिया एजेंसी के द्वारा जब्त किये गये जून दस्तावेज से मिलती है।
   ‘‘हम 2050 तक सशस्त्र संघर्ष के द्वारा भारत सरकार को अपदस्थ कर मजदूरों और सर्वहारा के सरकार की स्थापना करेंगे।’’ जून दस्तावेज ने सरकार की नींद हराम कर दी। यह माओवादियों के सशस्त्र संघर्ष अंतिम चरण के शुरूआत की उद्घोषण थी।
केंद्र सरकार द्वारा माओवादियों के विरूद्ध अभियान चलाने का निणर्य
   जम्मू-कश्मीर और मिजोरम के बाद ये राज्य संघर्ष के तीसरें केंद्र के रूप में उभरे हैं जहाँ पर  माओवादियों के विरूद्ध सुरक्षा बलों की व्यापक तैनाती हुई हैं। यद्यपि गृह मंत्रालय इस पूरे अभियान को एक साधारण सा मामला बताती रही है। जिस अभियान को ‘‘आॅपरेशन ग्रीन हंट’’ के नाम से जाना जाता है। पी॰ चिदंबरम के गृहमंत्री बनने के बाद इस अभियान में काफी तेजी आयी। सरकार ने न केेवल तल्ख तेवर दिखायें बल्कि प्रभावित राज्यों के मुख्यमंत्रियों के साथ बैठक कर माओवादियों के विरूद्ध अभियान को साझा रणनीति का हिस्सा बनाया।
   माओवादियों के विरूद्ध अभियान के लिये रायपुर, झारखंड एवं प॰ बंगाल में एकीकृत कमान की स्थापना की गई। लेकिन केंद्र सरकार ने जिस साइकोलाॅजिकल वारफेयर के साथ माओवादियों के विरूद्ध अभियान को प्रारंभ किया वह उतना आसान भी नहीं रहा है जिसे शायद सोचा नहीं गया। इस अभियान से जुड़ी कठिनाइयाँ और खतरे एक अलग विषय है जिसकी आगे चर्चा होगी। लेकिन केंद्र ने माओवादियों के विरूद्ध अभियान और इस समस्या पर सरकारी सोच में एक आमूलचूल परिवर्तन का संकेत भी दिया। केंद्र सरकार अंततः इस सोच पर ठिठक गई कि मात्र विकास की बातें करने से माओवादी समस्या का उन्मूलन नहीं हो सकता हैं इसे जमीन पर लाना होगा और इसे जमीन पर लाने के लिये आपको सुरक्षा अभियान के द्वारा माओवादियों के प्रभाव क्षेत्र को अपने कब्जे में लेना होगा जिसे वहाँ पर विकास का काम हो सके। सरकार का मानना है कि माओवादी विकास में बसे बड़े अवरोध हैं क्योंकी उनके प्रभाव वाले इलाकों में विकास होने से उनके समर्थन का आधार खत्म हो जायेगा। आज यद्यपि आॅपरेशन ग्रीन हंट एक लो-की-एफेयर बन गया है लेकिन पिछले साल ऐसा लग रहा था कि देश किसी बड़े युद्ध की तैयारी में है। इस प्रकार से एक विशाल सुरक्षा अभियान की शुरूआत छत्तीसगढ़, झारखंड, प॰ बंगाल, उडि़सा एवं आध्र प्रदेश जैसे राज्यों में हुई। यह एक ऐसे शत्रु के विरूद्ध खतरनाक अभियान है जो दुर्गम इलाकों में रहता है और जिसके ठिकानों का कोई सही अता-पता तक नहीं है।
   माओवादी समस्या के संदर्भ में प्रधानमंत्री ने नीतिगत मामलों पर भी परिवर्तन का संकेत दिया। यह सुरक्षा अभियान से इतर सामाजिक और आर्थिक गलतियों को दुरूस्त करने की कोशिश थी। प्रधानमंत्री ने माना की आदिवासी समाज की मुख्यधारा से कट रहा है। उनके इलाके अभी भी अविकसित हैं और वन्य भूमि एवं अन्य पर उनके परंपरागत अधिकारों का हनन हो रहा हैै। प्रधानमंत्री ने माना की प्रशासन और उससे जुड़े लोगों ने आदिवासियों का हरेक स्तर पर शोषण किया है। सरकार ने तीन मामलों पर तत्काल पहल लिया। प्रथम-पंचायत एक्टेंशन इन शेडयुल्ड एरिया एक्ट (पेसा) कानून को प्रभावी तरीके से लागू किया जाये। ग्राम पंचायत को लघु वन उत्पाद का अधिकार दिया जाये।
   एक अनुमान के अनुसार इन राज्यों में लघुवन उत्पाद की अनुमानित कीमत तकरीबन 50000 करोड़ रूपये हैं जिसपर आदिवासी समाज का पहला अधिकार बनता है। अभिवाजित मध्यप्रदेश में जब आदिवासियों का हक छीनते हुए सरकार ने केंदु पत्ते के चुनने का अधिकार ठेकेदारों को दे दिया था तब शायद ही किसी को यह आभास रहा होगा कि इस पत्ते से इतनी बड़ी आग लगेगी। केंद्र सरकार ने गत वर्ष ही लघुवन उत्पाद के चोरी से जुड़े हुए देश के विभिन्न राज्यों में लंबित करीब 33000 से अधिक मामलों को समाप्त कर गलती पर प्रायश्चित किया। कंेद्र सरकार ने देश के 34 नक्सल प्रभावित इलाकों में सड़क एवं पुलों के निर्माण के लिये 950 करोड़ रूपये की राशि देन का निर्णय लिया।
   केंद्र सरकार माओवाद से निपटने के लिये सतत सुरक्षा अभियान के साथ-साथ समाज की मुख्यधारा से कटे आदिवासी ओर पिछड़े इलाकों को विकास की धारा में शामिल करने का प्रयास किया है। इसके साथ सरकार माओवादियों के आत्मसर्मपण और उनके पुर्नवास नीति पर भी काम कर रही है। झारखंड जैसे राज्यों में जहाँ चैबीस के चैबीस जिले माओवाद की चपेट में हैं, वहाँ माओवादियों के आत्मसर्मपण और पुर्नवास नीति के परिणाम उत्साहजनक रहे हैं।
   ‘‘पिछले साल से अब तक हमलोगों ने कई कट्टर माओवादियों का आत्मसर्मपण करवाया है और अब वह समाज की मुख्यधारा में शामिल हो गये हैं। माओवादियों से जंग मात्र बंदुक की ही नहीं है यह विचारधारा की भी लड़ाई है हमें उस आधार पर भी लड़ाई लड़नी होगी।’’ झारखंड पुलिस के पूर्व मुखिया नेयाज अहमद माओवादियों के आत्मसर्मपण से संबंधित ‘‘आॅपरेशन नई दिशा’’ से खासे उत्साहित दिखते हैं।
   ‘‘आप लोगों को जीतिये आप बिना एक गोली दागे सारी लड़ाई जीत लेंगे’’, अहमद जोर देते हैं। दिल और लोगों को जीतने के तरीके पर अभी भी बहस जारी है और इस बात पर भी दिल जीतने के लिये उठाये जानेवाले कदम पिछले कई दशकों के गलती की भारपाई कर सकते हैं जो पुलिस, पदाधिकारी पटवारी और प्रशासनतंत्र ने आबादी के बड़े हिस्से के अधिकारों का हनन कर किया।
   पिछले लगभग साढ़े चार दशकों ेसे चल रहा माओवाद जैसा कोई भी भूमिगत आंदोलन बिना व्यापक जन सर्मथन के संभव नहीं है लेकिन जनसर्मथन के कारणों पर एक बहुत बड़ा विवाद और बहस भी है।
माओवाद के उदय और वृद्धि के कारण: माओवाद का प्रभाव खासकर आदिवासी बहुल और अविकसित इलाकों में सबसे अधिक है। खनिज संपदा और प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर इन इलाकों पर पहले से ही औद्योगिक घरानों और भ्रष्ट पदाधिकारियों की नजर रही। फलतः इन इलाकों से खनिज संसाधनों का दोहन औद्याोगिक प्रगति के नाम पर होता रहा। आदिवासियों की जमीन लुटती रही और अगर पिछले साठ सालों मेें किसी वर्ग को विस्थापन का दर्द सबसे अधिक झेलना पड़ा तो वह आदिवासी और कृषक समाज ही रहा। ये इलाके पिछड़ते चले गये। ये इलाके भारत के उन इलाकों के लिये तरक्की का सामान जुटाते रहे हैं जिसे प्रगतिशील भारत कहते हैं। आदिवासियों के वन्य भूमि पर अधिकार समाप्त कर दिये गये। ऐसे में माओवाद का प्रभावी तौर पर उमड़ना स्वाभाविक ही था। ऐसा उस समय भी स्वाभाविक था जब माओवादियों ने जमींदारों के विरूद्ध श्रीकाकुलम में आंदोलन का नेतृत्व संभाला था। तेलंगाना प्रक्षेत्र में जब भ्रष्ट वन पदाधिकारियों ने आदिवासियों को वन्यभूमि के अधिकार से वंचित कर दिया तो माओवाद ने उन इलाकों में पैर पसारना प्रारंभ कर दिया। अपने प्रभाव क्षेत्र को बढ़ाने के लिये माओवादियों ने वह सब करना शुरू किया जो काम सरकार का होता है – श्रम कानून लागू करना, जमीन का बंटवारा, भ्रष्ट पदाधिकारियों को दंडित करना और जब 2008 नक्सलियों के पश्चिम बंगाल के लालगढ़ में घुसने की सूचना मिली तो एकबारगी इस खबर ने सभी को चैंका दिया। यह खासकर उनलोगों को अधिक परेशान कर गया जो अभी तक यह मान रहे थे कि प॰ बंगाल में माओवाद का अब फिर से कभी भी प्रभाव स्थापित नहीं हो पायेगा। यह आंशिक तौर पर ही था। नक्लवाद के उदय के कुछ एक वर्षों बाद ही प॰ बंगाल में कांग्रेस के स्थान पर वामपंथी दलों की ेसरकार बनी। सरकार ने आते ही भूमिसुधार हेतु वटाइदारी अधिनियम को मजबूती से लागू कर स्थिति को एक हद तक काबुू किया। लेकिन 1990 के दशक के आर्थिक उदारवाद की राजनीति का प्रभाव वामपंथी पार्टियों पर भी पड़ा। बुद्धदेव भट्टाचार्य के नेतृत्ववाली सरकार ने नये उद्योगों को खोलने की पहल की। उद्योग स्थापित करने के लिये जमीन चाहिये, औद्योगिक घराने औने-पौने दामों में जमीन चाहती थी और जनता देना नहीं चाहती थी। खेती की भूमि तो खासतौर पर नहीं। लालगढ़ इसके लिये तैयार नहीं था। तो फिर उस इंकार की कीमत चुकाने के लिये तैयार रहना था। ऐसा ही हुआ। प॰ बंगाल की सत्ताधारी कम्युनिस्ट पार्टी की सशस्त्र इकाई ‘‘हरमद वाहिनी’’ और राज्य पुलिस ने महीनों तक लालगढ़ पर घेरा डालकर रखा। लालगढ़ का हठीला रवैया सरकार के नाक का प्रश्न हो सकता था लेकिन माओवादियों के लिये यह खुला निमंत्रण था। 2007 में 86 और 2010 में शतक का आंकड़ा पार करना बंगल के लिये खतरनाक संकेत है। देश के ये हलाके अब खतरनाक इलाकों में गिने जाते हैं जहाँ पर एक अलग ही सरकार चलतील है: जनता सरकार। ऐसी सरकार छत्तीसगढ़ के अवुजमाड़ और झारखंड के सारंडा जैसे इलाकों सहित अन्य जगह भी चलते हैं।
 
‘‘आपका इस जनआंदोलन में स्वागत है, आप जिस सरकार को मनाते हैं उस सरकार ने बहुमत को भुला दिया है, और बहुमत हमारे साथ है।’’ माओवादी प्रवक्ता (झारखंड जोन) राकेश इस आंदोलन के उपर किसी भी बहस के लिये तैयार दिखते हैं। सारंडा के घने जंगलों के बीच बसे मनोहरपुर के इस इलाके जहाँ पर जनता सरकार चलती है वह कुछ आश्चर्य और अविश्वास भी पैदा करता है। क्या माओवादियों की जनता सरकार सचमुच में कोई समानांतर सरकार है है या फिर यह कोई मिथ्यानाम है। कारण, यहाँ माओवादियों की जनता सरकार के अतिरिक्त और कोई सरकार नहीं है और अगर कोई सरकार है तो वह राँची में हैे जिसके आला पदाधिकारी सारंडा को दुगर्म इलाका कहते हैं। इन इलाकों में जनता से एक तिरिल गाँव के मार्शल टुडू जनता सरकार को सर्मथन देने के कई कारण गिनाते हैं। ‘‘ठेकेदार ने अत्याचार बंद किया, हमलोगों को जंगल का हक दिया, जनता सरकार जिंदाबाद।’’ टुडू गाँव के बच्चों के लिये स्कूल चलाते हैं और बताते हैं कि सरकार ने इन इलाकों के विकास के लिये कभी कुछ नहीं किया। यह तय पर पाना मुश्किल है और पूछना खतरनाक कि इन माओवादियों को सर्मथन किस आधार पर मिलता है: विचारधारा की भक्ति या फिर भय। लेकिन जो बात खुले तौर पर सामने आयी है वह यह कि जहाँ क्रांति के नारे काम करते हुए दिखाई नहीं दिये वहाँ माओवादियों ने बंदूक का सहारा सर्मथन लेने में किया है।
   लेकिन कुछ ऐसे भी हैं टुडू से अलग सोचते हैं लेकिन उन्हें यह नहीं पता कि उन्हें कब और कहाँ बोलना चाहिये। विरोध और विचारधारा से अलग राय रखना मौत का कारण भी हो सकता है। अधेड़ जतरा मुंडा हमें बताते हैं। ‘‘यह कोई सीधी कहानी नहीं है, बहुत खौफनाक हालत है। मेरे पास इस बात के अलावे और कोई चारा नहीं है कि मैं अपने झोपड़े पर लाल झंडा टांग लूँ। उनके पास बंदूकें हैं। लेकिन वह सरकार मुझे कहाँ मिलेगी? इन गाँववालों की स्थिति दो पाटों के बीच वाले मुहावरें से अधिक बदतर है। हिंदुस्तान के इन अविकसित इलाकों में एक ऐसी लड़ाई चल रही है जिसमें इन गरीब ग्रामीणों के लिये निरपेक्ष रहने की छूट नहीं है।’’ या तो आप माओवादियों के साथ है या फिर पुलिस के साथ। या तो आपको पुलिस मारेगी या फिर माओवादी। और अगर आप निरपेक्ष जैसा कुछ सोच रहें तो दोनों ही तरफ से मरने के लिये तैयार रहिये।’’
   26 वर्षीये तिलेश्वर कुजूर काफी कुरेदने के बाद यह सब बताते हैं। कुजूर झारखंड के लातेहार जिले के मनिका थाना क्षेत्र के निवासी हैं। लेकिन माओवादियों के डर से उन्हें अपना घर छोड़ना पड़ा जो उन्हें अपने संगठन में शामिल करना चाहते थे। ऐसे दजर्नों कुजूर माओवादियों के डर से अपना घर छोड़ चुके हैं। लेकिन कई उनकी जमात में शामिल हो चुके हैं। ऐसा विचारधारा के कारण नहीं बल्कि विवशता के कारण। माओवादियों से मिली एक अदद बंदूक और कुछ पैसे काफी हैं। ये पैसे इसलिये भी काफी हैं क्योंकि उनके लिये रोजगार का कोई साधन नहीं है।
   दिन के समय पुलिस का भय और रात में नक्सलियों का खौफ इन इलाकों की एक अलग ही कहानी है। चीजें इनसे काफी दूर है, विकास भी:-
   झारखंड-उड़ीसा के बोर्डर पर बसे मनोहरपुर और नोवामुंडी के इलाकों में जन कल्याण योजनाओं के नारों की बाढ़ सी दिखती है। साक्षर बनें, पोलियो के खिलाफ अभियान, छोटा परिवार सुखी परिवार, जंगल बचाये पौधे लगायें, कंडोम का इस्तेमाल में हिचक क्यों, एच.आई.वी. मौत का कारण बन सकती है। भूख भी मारती है लेकिन यह नारा कहीं नहीं लिखा दिखता है। कभी-कभी कहीं से इसकी खबरें आ जाती हैं। इन इलाकों में सरकार की मौजुदगी बस नारों में दिखाई देती है। बहरहाल पेंटर ने अपना काम बखूबी से किया नारे लिखे और चला गया अगली बार वह फिर से कोई नया नारा लेकर आयेगा। तब तक आप उसके सुझावों पर गौर करें।
   बिजली, पानी और सड़क से मरहूम इन इलाकों में इस बात का भी कोई संकेत नहीं मिलता है कि कभी विकास के कोई प्रयत्न भी किये गये। अगर मनोहरपुर एवं नोवामंडी के इलाकों में कुछ हो रहा साफ सा दिखाई देता है तो वह है लौह अयस्क और अन्य खजिन संसाधनों की तस्करी। इसके प्राकृतिक संसाधनों को जम कर लुटा और खसोटा जा रहा है। अगर इन इलाकों में सुलग रहे आग की तपिश महसूस नहीं की जा रही है तो उसके पीछे का संभवतः कारण यह है कि ये इलाके विकास के मानचित्र पर उपेक्षित रहे हैं। इसलिये सारंडा के जंगलों में बसे ऐेसे दर्जनों गाँव हैं जिसके बारे में सरकार को जानकारी नहीं है। पश्चिमी सिंहभूम जिले के कुल साक्षरता दर 38.92 के विरूद्ध इन इलाकों में साक्षरता की दर शून्य से 9 प्रतिशत से उपर नहीं उठ पाई है। 650 के करीब गाँव की आबादी वाले सारंडा इलाके में मुश्किल से 40 के करीब स्कूल है। ये स्कूल या तो बंद हैं, या फिर नक्सल अभियान में शामिल सुरक्षा बलों के अस्थायी निवास है और बाकी बचे को माओवादियों ने उड़ा दिया है। प्राथमिक चिकित्सा की सुविधा इतनी दूर है कि मरीज पहुॅच ही नहीं सकता। भूख, बीमारी और कुपोषण से मौत आम बात है। इन्हीं हालात में माओवाद का इन इलाकों में प्रवेश हुआ।
   जहाँ सरकार माओवादियों को आंतरिक सुरक्षा के लिये खतरा बताते हुए इसको खत्म करने के लिये प्रतिवद्ध दिखती है माओवादियों में भी इस सशस्त्र आंदोलन को एक मुकाम पर पहुंचाने की प्रतिवद्धता दिख पड़ती है। सवाल दोनों के प्रतिवद्धता पर खड़े हो रहे हैं। क्या सरकार मात्र बंदूक के जोर पर माओवादियों का सफाया कर सकती है? और, क्या माओवादी चीनी विचारधारा को भारत में सफल बना सकेंगे। दोनों ओर से भयानक लड़ाई छिड़ी हुई है और दोनों पक्षों को अपने अगले मुकाम का पता नहीं और ना ही यह की उनका अगला मुढभेड कहाँ होने जा रहा है। ऐसा मुढभेड़ छत्तीसगढ़ के सुकमा में हुआ था जहाँ माओवादियों ने तकरीबन 76 सुरक्षा जवानों को मार कर अपने खतरनाक इरादों के संकेत दिये थे। माओवादी जीते भी नहीं अैर सरकार ने हार भी नहीं मानी। इसे पहले भी रानीवोदली में माओवादियों ने करीब 77 पुलिसवालों की हत्या कर दी थी। नक्सलवाद के सिद्धांत उपर से क्रांतिकारी और भव्य जरूर दिखते हैं एक समतावादी समाज की काल्पनिक परिद्धश्य लेकिन इसको जमीन पर उतारने के तरीके खामी और खोट है। यह अपने रास्ते से ऐसे भटक चुकी है कि कल तक माओवादी आंदोलन को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष सर्मथन देनेवाले मानवाधिकारवादी एवं सिविलि सोसाइटी से जुड़े लोग भी माओवादियों को कुछ एक मुद्दों पर सर्मथन देने से हिचक रहे हैं। जब माओवादियों ने झारखंड के आदिवासी कनीय पुलिस पदाधिकारी फ्रांसिस इंदिवार और बिहार में ही एक अन्य पुलिसकर्मी लुकास टेटे की निर्मम हत्या कर दी या फिर ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस को निशाना बना कर बेकसूरों की जान ली तो माओवादी आंदोलन से सहानुभूति रखने वाले लोग चुप हो गये। सवाल यह भी उठते रहे हैं कि क्या माओवादी चीन की तरह भारत में सशस्त्र क्रांति और तख्ता पलट में सफल होंगें। हिंदुस्तान की मिट्टी और सामाजिक संरचना क्या ऐसी है। माओवादी अपने इलाकों में मजबूत हो सकते हैं, वो लाल सलाम और क्रांतिकारी गानों के मार्फत यह घोषणा कर सकते हैं कि माओ-त्से-तुंग की सेना जल्द ही शहर को चारों तरफ से घेर लेगी। लेकिन वह सरकार को खत्म कर देने की कूबत नहीं रखते जो वोट के द्वारा चुनी गई है। इन चार दशकों में माओवादी आंदोलन में खास भटकाव देखने को मिला है। माओवादी उन सिद्धांतों से हट से गये जिस सिद्धांत को लेकर उन्होंने लड़ाई छेड़ी थी।
   माओवादियों ने बस्तर के अपने अभेघ दुर्ग बस्तर में आदिवासियों के तेंदु पत्ते के चुनने पर प्रतिबंध लगा दिया। वह आदिवासियों को मजदूरी करने से रोकते हैं क्योंकि वह मजदूरी बहुत कम होती है। अंततः इन गरीब आदिवासियो को कुछ नहीं मिलता। इन आदिवासियों को यह नहीं पता कि उन्हें इस लड़ाई के चक्कर में कब तक भूखा और बेरोजगार रहना होगा जिस लड़ाई को कोई अंत नहीं दिखता। ऐसी ही परिस्थिति में 2005 के दौरान छत्तीसगढ़ में सलवा जुदुम आंदोलन का प्रारंभ हुआ था। यह माओवादियों के विरूद्ध एक प्रतिक्रियावादी आंदोलन था जिसका राज्य सरकार ने माओवादियों के विरूद्ध बखूबी से इस्तेमाल किया। शुरूआती दिनों में छत्तीसगढ़ कांग्रेस नेता महेंद कर्मा द्वारा समर्थित और बाद में भाजपा के रमन सिंह सरकार द्वारा संपोषित सलवा जुदुम पर सुप्रीम कोर्ट ने प्रतिबंध लगा दिया। सलवा जुदुम अब भी है सिर्फ नाम बदल गया है। अब इस से जुड़े लोग स्पेशल पुलिस आफिर कहलाते हैं। जाहिर है इस जंग में दोनों तरफ से आदिवासी ही मर रहे हैं। लेकिन इस जंग जिन लोगों ने अपनों को खोया है उनकी व्यथा से माओवादी परिचित नहीं होंगें। राँची के हरमू में तीन बच्चों के साथ रह रही इंदिवार की पत्नी काफी कुरेदने के बाद कुछ बोलती हैं।
   ‘‘मेरे पति को मारकर माओवादियों ने कौन सी जंग जीत ली? वह तो अपनी नौकरी कर रहे थे। उन्होंने किसी का क्या बिगाड़ा था। वह अपने आप को आदिवासियों का रक्षक कहते हैं आज मैं फटेटाल और परेशान हूँ। उन्होंने मेरा सब कुछ छीन लिया। अपने पति के जीवन के लिये गुहार लगाई लेकिन उन्होंने मेरे पति को बेरहमी से मार दिया।’’
   माओवादियों ने उनकी हत्या के बाद माफी माॅग ली थी। माओवादी ऐसे मामलों में माफी जरूर माॅग लेते हैं- चालाकी भरी इमानदारी। ऐसी ही इमानदारी झारखंड के इमानदार और गरीबों के हक की लड़ाई लड़ने वाले सी.पी.आइ. (एम.एल.) के विधायक महेंद्र सिंह को मारने के बाद माओवादियों ने दिखाई थी। वकौल सिंह झारखंड के ऐेसे विधायक थे जिनको मार कर माओवादियों के गरीबों की आवाज उठानेवाले एक सशक्त आवाज को शांत कर दिया। ऐसा क्यों किया? माओवादियों के पास इस बात को कोई जबाव नहीं है सिवाय यह कहने के की ऐसा गलती से हो गया। उनके विधायक पुत्र विनोद सिंह साफ तौर पर कहते हैं कि माओवादी आंदोलन उन सिद्धांतों से कोसों दूर जा चुका है जो कभी इसके विस्तार का कारण रहा।माओवादी की जमात में आज  लुटेरे और गुंडे शामिैल हो गए है जो संगठन के नाम पर लेवी वसूलते हैं।
   कहीं न कहीं माओवादी ऐसी लड़ाई लड़ रहे हैं जिसके सैद्धांतिक और सामरिक संदर्भ सवालों के घेरे में हैं। अरसे से माओवादी आंदोलन से जुड़े सुरेश सिंह उर्फ वीरवल इन मुद्दों पर चर्चा करने से कटते हैं। ‘‘चर्चा करेंगें’’ वीरवल ने बताया। लेकिन फिर उत्तेजित े हो उठते हैं। ‘‘अगर हम यह लड़ाई सैद्धांतिक तौर पर हार रहे हैं तो सरकार हमें इतनी बड़ी समस्या क्यों मानती है?
   क्यों हजारों की संख्या में फौज को उतारा जा रहा है और फिर भी सरकार मुंह की खा रही है? वीरवल माओवादी आंदोलन की सफलता के दस्तावेज दिखाते है: 2005 में जहानाबाद जेल तोड़कर माओवादियों को आजाद कराना, 2003 में चाईबासा के वलीवा में 33 सुरक्षा बलों की हत्या और कई अन्य। उनके अनुसार माओवादी आंदोलन पहले से अधिक मजबूत होकर उमड़ा है।
बातचीत से समाधान के रास्ते बंद
   पिछली साल जब माओवादी आंदोलन के विरूद्ध सुरक्षा अभियान को हरी झंडी दिखाई गई उस वक्त सिविल सोसाइटी से जुड़े लोगों ने सरकार और माओवादियों पर बातचीत के आधार पर समाधान निकालने के लिये दबाव डाला। दोनों पक्षों ने गंभीरता दिखाई जो नकली और सतही था। गृहमंत्री ने स्वामी अग्निवेश और अन्य को इस संदर्भ में पत्र भी लिखा कि वह माओवादियों को बातचीत के रास्ते पर लायें। यह राजनीतिक रणनीति का हिस्सा था जिसके अन्तर्गत केंद्र यह संदेश देना चाहती थी कि वह बातचीत और समझौते को अधिक तरहीज देना चाहती है। लेकिन माओवादी नेता चेरूकुरी राजकुमार उर्फ आजाद की पुलिस मुढभेड़ में मृत्यु के साथ ही बातचीत के बहाने पूर्णतः बंद हो गये। आजाद को मृत्यु के लिये सरकार को दोषी ठहराते हुए स्वामी अग्निवेश ने कहा कि आजाद उनके बातचीत के प्रस्ताव को शीर्ष माओवादी नेताओं के देने जा रहे थे जिस दौरान उनकी हत्या हो गयी। वैसे भी पूर्वकाल में आंध्र प्रदेश सरकार द्वारा सन् 2004 में पी.डब्लू.जी. से बातचीत के पहल का नतीजा खतरनाक निकला।
माओवादी विरोधी सुरक्षा अभियान के खतरे और खामियाँ
   माओवादियों के विरूद्ध चल रहे सुरक्षा अभियान को समझने के लिये संभवतः यह उचित होगा कि हम इससे जुड़े कुछ सवालों पर चर्चा करें। आॅपरेशन ग्रीन हंट के सुगम मार्ग की पटकथा लिखना कठिन हैं क्योंकि इसके रास्ते काफी दुर्गम हैं और जिन्होंने इस आॅपरेशन को खतरनाक गति दी है वो भी आगे आने वाले खतरनाक मोड़ो से परेशान हैं।
   क्या यह पता है कि छत्तीसगढ़ में प्रति चार वर्ग कि.मी. के इलाके की सुरक्षा के लिये सिर्फ एक पुलिस बल है। अगर बस्तर जैसे माओवादी प्रभावित क्षेत्र में क्षेत्रफल और पुलिस का आंकड़ा देखें तो यह नौ वर्ग कि.मी. पर एक पुलिस बल बैठता है। यही हालत झारखंड की है। क्या यह पता है कि अग्रिम दस्तों पर भेजे जाने 10 में आठ जवानों को उन इलाके और आबादी की जानकारी नहीं है जिसे उन्हें जीतने के लिये भेजा गया है।
क्या यह पता है कि संसाधनों की भारी कमी है। आबादी और पुलिस के मानक अनुपात प्रति एक लाख की आबादी के लिये 222 पुलिस बल की तुलना में माओवाद प्रभावित राज्यों में यह आंकड़ा काफी निम्न है। बंगाल में 98, झारखंड में 114 और बिहार में 57।
  क्या यह पता है केंद्र सरकार द्वारा नक्सलवादी अभियान के लिये प्रस्तावित 35 बटालियन को खड़ा करने में कम-से-कम तीन साल का समय लगेगा।
  क्या यह पता है कि देश में जंगल वार फेयर में विशिष्ट टेªनिंग देनेवाली एक मात्र स्कूल छत्तीसगढ़ के कांकेर में हैं। झारखंड जैसे राज्यों में अभी भी जंगल-वार-फेयर के केेंद्र खोले जाने वाले बांकी है। बंगाल सरकार ने लालगढ़ के कांड के बाद यहाॅ जंगल-वार-फेयर केंद्र खोलने की सोच रहा है। क्या आपको पता है कि पिछले दो साल पहले कांकेर से करीब 5000 जवानों ने प्रशिक्षण प्राप्त किया था लेकिन उनमें से मात्र 800 ही कांउटर इंमरजेंसी में लगाये गये है ंबांकी के 4200 रायपुर के अति विशिष्ट की सुरक्षा में।
  क्या यह पता है कि सुरक्षा बलों के पास रीयल टाइम इंटेलिजेंस का घोर अभाव है। नक्सलियों को अपने इलाकों की भौगोलिक जानकारी होती है। सुरक्षा बल को नहीं। यहाॅ तक एक कठोर सत्य है कि नक्सलियों का इंटेलिजेंस सुरक्षा बल से अधिक बेहतर देखा गया है। नक्सली उन्हीं आम जनता के बीच से आते हैं वहीं स्थानीय सुरक्षा बलों को बाहरी समझतेे हैं। छत्तीसगढ़ के सुकमा में करीब 76 सुरक्षा बलों की नक्सलियों द्वारा हत्या इस पूरे अभियान के ढीले पेंच की ओर इशारा करती है। सुकमा की घटना के पीछे का कारण सुरक्षा तंत्र की शून्य गुप्तचर व्यवस्था रही। सी.आर.पी. एफ के 76 जवान अनायास ही माओवादियों के बिछाये जाल में फंस गये। माओवादी तकरीबन 1000 की संख्या में थे और तकरीबन तीन घंटे की लड़ाई में सुरक्षा बलों को इतना बड़ा नुकसान पहुंचा दिया। आश्चर्य की बात यह है कि जहाॅ पर इस घटना को अंजाम दिया गया वहाॅ से कुछ नहीं देखा। ऐसा नहीं हो सकता है कि स्थानीय निवासियों को सामूहिक हत्याकांड के इस पूरे प्रबंध की जानकारी नहीं रही होगीं
  क्या यह पता है कि माओवादी प्रभाव में आनेवाले करीब 95 प्रतिशत इलाकों में कच्ची सड़कें तक नहीं है। क्या यह पता है कि बस्तर, दंतेवाड़ा, अबुजमाड़ और सारंडा जैसे इलाकों का हवाई सर्वेक्षण संभव नहीं हो पाया है। करीब 50000 वर्ग कि.मी. में फैला दंडकारण्य जंगल माओवादियों के लगभग कब्जे में है। इन इलाकों की आज तक सेटेलाइट से कोई सही जानकारी मिली है और न ही इन इलाकों के नक्शे की पैमाइश की जा रही है।
क्या यह पता है कि छत्तीसगढ़ के दुर्गम इलाकों में तैनात जवानों के लिये रसद पहुंचाना कठिन साबित हो रहा है। क्या यह पता है कि मुठभेड़ की स्थिति में (ऐेसे इलाकों में) सहायता के लिये अतिरक्त सुरक्षा बल भेजना और फिर घायल जवानों को सुरक्षित निकालना चुनौती कम चमत्कार अधिक है।
  लंबे अरसे से नक्सल अभियान पर नजर रखे सुरक्षा विशेषज्ञों का मानना है कि बिना तैयारी के सुरक्षा बलों को नक्सल विरोधी अभियान में झोंक देना भूखे भेडि़यों को न्योता देने के बराबर है। नक्सल अकसर ही गुरिल्ला लड़ाई का तरीका अपनाते हैं और उनकी हमला कर गायब होने जाने की रणनीति सुरक्षा बलों के लिये खासा खतरनाक साबित हुआ है। नक्सली जिन इलाकों में अपना प्रभाव रखते हैं वहाॅ पहुंचने के साधन नहीं हैं। पिछले दस सालों से इन इलाकों में न ही सरकार और न ही सुरक्षा एजेंसियों ने प्रवेश करने की जोखिम ली है। इसी दंडकारण्य के बीच में अबुजमाड़ इलाका है जिसकी भौगोलिक स्थितिएक अबुझ पहेली रही है। गोंड भाषा में अबुजमाड़ का उच्चारण अबुझमाड़ है। माड़ अर्थात पहाड़ों की ऐसी श्रृंखला जिसे आज तक कोई जान नहीं पाया े। अबुजमाड़ माओवादियों का सबसे सशक्त और सुरक्षित किला है। अबुजमाड़ को कब्जे में लेना सरकार के लिये इसलिये ही जरूरी नहीं है कि वह माओवादियों के सैन्य अभियान का मुख्यालय है इसलिये भी कि यह ऐसा ऐसा इलाका है जो सभी के लिये पहेली रही है।
   सरकार और सुरक्षा तंत्र सत्य के खुलासे से परहेज रखती रही है वह दंडकारण्य के माओवादियों के लिये एक सुखद तथ्य है। वह यह कि अबुजमाड़ को निकट भविष्य में में अपने कब्जे में कर लेना असंभव ही नहीं अकल्पनीय है। अगर सुरक्षा बल माओवादियों को अबुजमाड ़तक भी समेट दें तो यह एक बड़ी सफलता होगी।
नक्सलवाद और मीडिया रिर्पोटिंग
   माओवादी अभियान का समाचार संकलन हद से अधिक खतरनाक होता चला जा रहा है। झारखंड जैसे राज्यों में युवा पत्रकारों के बीच नक्सल रिर्पोट के लिये एक विचित्र सा जुनून और आवश्यकता से अधिक उत्साह भाव दिखता है। पिछले पांच सालों में माओवादियों के पी.आर. के तरीकों में जबर्दस्त बदलाव देखने को मिला है। कहीं न कहीं माओवादी मिडिया और प्रचार तंत्र का इस्तेमाल बखूबी करते दिखे हैं। मीडिया उनका माध्यम भी बनी है। लेकिन पांच साल पहले माओवादी नेता मीडिया से बहुत अधिक बातें नहीं करते थे। माओवादी आंदोलन पर पिछले 22 वर्षों से नजर रखे हुए वत्र्तमान में . के झारखंड  संवाददाता  कि नक्सल संबंधी समाचरों को कभी-कभी अतिरेक के साथ प्रस्तुत किया जाता है। मीडिया को तटस्थ रहकर खबरों को देना चाहिये उसकी जगह यहां के पत्रकार रोमांच और रक्त जैसा कुछ प्रस्तुत करते दिखते है।
उदाहरण के तौर पर तमार और खूंटी के इलाकों के बीच नक्सली वारदातों को अंजाम देनेवाले कुंदन पाहन पर यहां के कई स्थानीय न्यूज चैनलों ने आधे घंटे से लेकर एक घंटे तक का प्राइम टाइम इस व्यक्ति के उपर खर्च किया। स्थानीय अखबारें भी इससे संबंधित खबरों से पटी रहती है। लेकिन संगठन (माओवादी) से जुड़े कोई लोग पाहन को लुटेरा और गुंडा मानते है जो संगठन की आर में अपना अपराधिक साम्राज्य खड़ा कर रहा है। झारखंड में मीडिया कहीं न कहीं सस्ती लेाकपिय्रता और टी.आर.पी. के भवर में फंसी नजर आती है। इसका एक उदाहरण साल 2010 में सिंहभूम जिले के धालभूमगढ़ के वी.डी.ओ. प्रशांत कुमार लायक के अपरहण और फिर रिहाई में देखा जा सकता है। झारखण्ड के एक लोकप्रिय अखबार प्रभात खबर ने तेा लायक के रिहाई का सेहरा अपने सर पर बांधने की कोशिश की और लिखा की ऐसा अखबार के संवेदनशील अपील के कारण संभव हुई। अखबार के पथम पृष्ठ पर मोटे शीर्षक मंे लायक का व्यक्तव्य कुछ इस प्रकार से छापा गया था। ‘‘प्रभात खबर मेरे लिये भगवान बन कर आया’’ वैसे लायक के रिहाई के समय मीडिया के कई भगवान मौजूद थे, प्रभात खबर के भी पत्रकार मौजूद थे। लेकिन किसी ने ग्राह के चुंगल से आजाद हुए इस गज को अपेन कब्जे में लेकर अपने आॅफिस ले जाने की कोशिश नहीं की। शायद अखबार का प्रबंधन लायक को एक ऐसे मसाले के तौर पर प्रस्तुत करना चाहता था जो की उसी अखबार के पास था। ऐसा नहीं हो सका क्योंकि लायक के नक्सलियेां के हद से बाहर आते ही पुलिस ने इस अखबारी कोशिश को सफल नहीं होने दिया। लायक का अपहरण या उससे पहले बंगाल में एक थाना प्रभारी  के अपहरण के मामले में कुछ खास चीजें देखने की मिली। नक्सलियों ने मीडिया की माध्यम से अपनी बाते रखी, अपना प्रचार और प्रसार किया और मीडिया की उपस्थिति में अपहृत लोगों को छोड़ा। जहां सुरक्षा बल और गुप्तचर तंत्र नहीं पहुंच पाते हैं ऐसे दुगर्म और वियावन जगह पर मीडिया अपने सम्पर्क सूत्रों के माध्यम से पहुंच जाती है।
 नक्सलवाद पर नजर रखे हुए पत्रकार बताते हैं कि माओवादी के सैन्य संगठन के प्रमुख और संगठन में दूसरे नंबर पर आनेवाले कोटेश्वर राव उर्फ किशनजी उर्फ रामजी उर्फ मास्टर साहब ने मीडिया का बखूबी इस्तेमाल किया है। किशनजी संगठन के उन चंद लोगों में से है संभवतः अकेले भी, जो खास मीडिया कर्मियों से सम्पर्क में रहते हैं। किशनजी समेत अन्य माओवादी नेता का व्यक्तव्य या फिर एक्सक्ल्यूसिन साक्षात्कारों की तो एक समय बाढ ही आ गई थी। ऐसा होने के कई कारण भी है। 1990 के उदारीकण के दौर के साथ देश में निजी चैनलों की बाढ़ आ गई। बढ़त लेने की होड़ में मीडिया में उत्तेजना भर दी गई। मंत्र यह है किं  दिखता है वही बिकता है तो इसे बेचने में कोई हर्ज नहीं। प्रिंट भी इससे अछूता नहीं रहा है। नक्सल भावनाओें में एक व्यापक उछाल 2007 के समय आया जब झारखण्ड, छतीसगढ़ और आंध्रप्रदेश के माओवादियों का प्रवेश प. बंगाल के लालगढ़ में हुआ था। एक सर्वे के अनुसार 2004 के दौरान नक्सल गतिविधियों से संबंधित कुल 43 खबरें ही आयी थी। 2007 में इसकी संख्या 2287 थी। 2008 में यह 1879 के करीब रहा और 2009-10 में यह 2500 के आंकड़े को पार का चुका था। यह वह वक्त था जब आॅपरेशन ग्रीन हंट की तैयारियां चल रही थी।
   लेकिन नक्सल रिर्पोटिंग में मीडिया ने कुछ खास चीजों पर ध्यान नहीं दिया जो संगठन के अंदर-अंदर ही चल रहा है। सतही चीजों यथा माओवाद जनित हिंसा, बंद, शासन तंत्र द्वारा माओवादी आंदोलन को दबाने की रणनीति या फिर इन सबों के उपर उपजे विवाद मीडिया में अधिक छाये रहे। लेकिन माओवादी आंदोलन जिस वर्ग संघर्ष को लेकर चला था के अंदर ही वर्ग और जाति संघर्ष के बीज पनप रहे हैं। कम से कम दो उदाहरण सामने हैं जिसमें माओवादियों के बीच जातिगत संघर्ष की बू आती है। पहला मामला आंध्रप्रदेश से है जहाॅ माओवादी आंदोलन से जुड़े कुछ लोगों ने अंबेडकर और माक्र्स के विचारों का मिश्रण कर एक नये आंदोलन को खड़ा करने की कोशिश की। उनके अनुसार जाति और वर्ग संघर्ष को साथ-साथ लेकर चलना होगा। संगठन में बड़ी जातियों के प्रभुत्व को खुल कर अगर चुनौती नहीं दी गई तो भी बहस की शुरूआत कर ही दी गई। आज संगठन के अंदर भी जातीय संघर्ष जड़ जमा रही है। सन 2010 में बिहार के विधानसभा चुनाव के समय लखीसराय में दो पुलिसवालों का माओवादियों ने अपहरण कर लिया था। उसमें से एक आदिवासी पुलिसकर्मी लुकास टेटे की हत्या कर दी गई लेकिन दूसरे को सुरक्षित रिहा कर दिया गया।
       उस वक्त पटना से प्रकाशित हिंदुस्तान टाइम्स में मेथ्यू मेनन की एक खबर छपी थी। माओवादियों के हवाले से छापी गई इस खबर के अनुसार उक्त पुलिसकर्मी की रिहाई एक खास जाति के माओवादी नेताओं के दबाव में हुई चूंकि अपहृत पुलिसकर्मी उस खास जाति से आता था झारखंड के पलामू प्रमंडल में माओवादी संगठन के शीर्ष पर एक खास जाति का कब्जा है।
       नक्सल आंदोलन और प्रेस पर बहस काफी बोझिल हो जाती है जब प्रेस को पूंजीवादी, प्रगतिवादी और जनवादी जैसे खेमों में बांट दिया जाता है। कहीं न कहीं यह सच है। करीब डेढ़ दशक भर पहले जब पी.डब्लू.जी. के नेता नालाआदि रेड्डी ने तेलंगाना मामले पर संगठन के दृष्टिकोण को रखने के लिये प्रेस कान्फ्रेंस बुलाया तो उसमें मात्र चार पत्रकार शरीक हुए। मात्र दी हिंदु, डेक्कन हेराल्ड और टाइम्स आॅफ इंडिया ने ही इसे मुद्दे को विस्तार से छापा था। इंडियन एक्सप्रेस में यह अंदर के पन्नों पर छपी थी जबकि अन्य समाचार पत्रों ने इसे गौण कर दिया।
       लेकिन छत्तीसगढ़ में जो कुछ भी हो रहा है वह खतरनाक हो रहा है। यहाॅ मीडिया दो खेमों में बंटी नजर आती है लेकिन उससे अधिक खतरनाक यह है कि राज्य सरकार येन-केन प्रकारेण मीडिया को नियंत्रित करना चाह रही है। छत्तीसगढ़ विधान सभा ने विशेष जन सुरक्षा कानून बनाकर किसी भी गैरकानूनी संगठन या गतिविधि के रिर्पोट पर प्रतिबंध लगा दिया। इस कानून की धारा दो (ई॰) में यह प्रावधान है कि किसी भी गैरकानूनी संगठन और उसके क्रिया कलापों का शब्द, चित्र या किसी भी माध्यम से रिर्पोट करने पर दो साल की सजा हो सकती हैै।
       रिर्पोटिंग के हिसाब से छत्तीसगढ़ खतरनाक बन गया है जहाॅ पर हरके कदम पर पुलिस और माओवादियों के खतरे हैं। हिंदसत्त पत्रिका के बीजापुर संवाददाता कमलेश पैकरा को अपनी जान बचाने के लिये भागना पड़ा जब पुलिस और सलवा जुदुम से जुड़े लोगों ने उनपर माओवादियों से संबंधित सूचना देने के लिये वाध्य किया। पैकरा अप्रील 2005 से ही पुलिस प्रशासन के नजर पर थे। सितंबर 2005 में ही जुदुम के कार्यकत्र्ताओं ने उनके घर को जला दिया था।
       बीजापुर के ही पत्रकार लक्ष्मण सिंह को भी ऐसी परिस्थितियों का सामना करना पड़ा जब उन्होंने पुलिस द्वारा एक महिला को पीटने से संबंधित खबर को छापा था कि छत्तीसगढ़ वी.जे.पी. के सांसद बलिराम कश्यप ने सन 2005 में यह कह कर हंगामा ही मचा दिया था कि वैसे पत्रकार जो माओवादी आंदोलन को महिमा मंडित करते हैं को फाॅसी दे देनी चाहिये । छत्तीसगढ़ के कई पत्रकार इस जन सुरक्षा कानून के शिकार बने हैं। एक अन्य वरिष्ठ पत्रकार साई रेड्डी पर इस कानून के तहत कारवाई की कोशिश की गई। 2007 में डाक्यूमेंट्री फिल्म बनाने वाले अजय टी.जी. को महज इसलिये इस कानून के जाल में फंसना पड़ा क्योंकि माओवादियों ने उनका कीमती कैमरा छीन लिया था और उस कैमरे को वापस लेने के लिये उन्होंने अपने संपर्क सूत्रों से माओवादियों से संपर्क साधने की कोशिश की थी।
       चेरूकेरी राजकुमार की पुलिस मुठभेड़ में मृत्यु के बाद छत्तीसगढ़ की पुलिस और गुप्तचर तंत्रों ने ऐसे पत्रकारों पर नजर रखनी शुरू कर दी है जो नक्सल से संबंधित खबर करते हैं।
       सलमान रावी कहते हैं, ‘‘छत्तीसगढ़ में एक प्रकार का अघोषित सेंसरशिप है। पुलिस और सुरक्षाबल कई तरह से पत्रकारों को जंगल में जाने और समाचार संकलन से रोकते हैं। यहाॅ बहुत ही खौफनाक माहौल है। एक युद्ध सी स्थिति है जिसमें कोई भी पक्ष जोखिम उठाने के लिये तैयार नहीं है।’’ असामान्य स्थिति को देखते हुए कई मीडिया संस्थान अपने पत्रकारों को रिस्क रिर्पोटिंग न करने की सलाह दी है।
       छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह ने हाल ही में आंतरिक सुरक्षा पर हुए देश के मुख्य मंत्रियों की मीटिंग में जो कुछ भी कहा उससे बहुत सारी बातें स्पष्ट होती है। सिंह ने मीडिया के एक वर्ग पर नक्सल प्रशंसा का आरोप लगाते हुए कहा कि दिल्ली और बाहर से आये हुए कुछ लोग राज्य में चल रहे माओवादी विरोधी सुरक्षा अभियान के संदर्भ में अर्नगल प्रलाप करते हैं और माओवादियों का प्रचार करते हैं।
       उनका इशारा बुकर पुरस्कार से सम्मानित उपन्यासकार अरूंधति राय की ओर भी था। दंतेवाड़ा में माओवादियों के गढ़ की यात्रा की जिन्होंने और वाकिंग विद काॅमरेड नाम से एक वृहत लेख लिखा। यह लेख माओवादी आंदोलन के प्रशंसा से लवरेज था। हांलाकि राय के लेख में कल्पना का बहुत सारा पुट था लेकिन उसमें यथार्थ को भी वर्णित किया गया था, ऐसा माओवादी आंदोलन पर नजर रखनेवालों का मानना है। राय का लेख आउटलुक पत्रिका में भी छपा था।
       सिंह ने यद्यपि मीडिया पर सेंसरशिप या कड़ी नजर की बात नहीं की लेकिन उन्होंने प्रधानमंत्री से इस संदर्भ में एक विस्तृत नीति बनाने की मांग जरूर कर डाली। सिंह की बातों से ऐसा लगता हे कि वह मैक्सिको के तर्ज पर ही ऐसा कुछ चाह रहे हैं जहाॅ की सरकार ने पत्रकारों द्वारा ड्रग माफियाओं के प्रशंसा या ऐसे भाव उत्पन्न करनेवाले रिर्पोट पर रोक लगा दी। सिंह ने कहा कि जहाॅ मीडिया का एक वर्ग पुलिस या सुरक्षाबलों के हाथों मानवाधिकार मामले में छोटी सी भी चूक को परोसने में पीछे नहीं हटते ऐसे लोगों को माओवादियों द्वारा आदिवासियों पर किये जा रहा अत्याचार और नरसंहार की खबरें नहीं दिखती। नक्सल और पुलिस बलों के बीच चल रहे संघर्ष में मीडिया की स्थिति काफी असमंजसपूर्ण है। यद्यपि इसमें कोई असमंजस नहीं है कि मीडिया को तटस्थ रहकर अपना काम करना है लेकिन उसके प्रतिबद्धता को अपनी तरफ करने की चेष्टा जरूर हो रही हैं। ‘‘नक्सल रिर्पोट एक दोधारी तलवार है। आपको यह देखना है कि कोई आपको प्रचार का माध्यम तो नहीं बना रहा है। अतिरेक, अतिउत्साह और प्रोपेगेंडा को खबरों में स्थान नहीं दिया जाना चाहिये’’। मीडिया पर लगनेवाला यह आरोप कि वह तथ्यों के छानबीन किये बिना रिर्पोट करती है तो यह कहीं-कहीं सही भी है तो कहीं-कहीं गलत भी। झारखंड से ऐसे दो मामले काफी चर्चा में आये थे। अगर टाडा कानून का सर्वाधिक दुरूपयोग देश की किसी राज्य में हुआ तो वह झारखंड में सर्वाधिक था जब बाबूलाल मरांडी राज्य के पहले मुख्यमंत्री बने। बड़ी संख्या में माओवादी नेताओं पर टाडा कानून के अन्र्तगत कारवाई की गई। तब उस समय दी टेलिग्राफ (अंग्रेजी दैनिक) में सलमान रावी की एक खबर छपी थी। रावी ने लातेहार जिले में टाडा के दुरूपयोग पर खबर लिखते हुए इस बात को उजागर किया कि कैसे ग्यारह साल के एक बच्चे गया सिंह और अन्य उसी उम्र के बच्चों को टाडा के अन्र्तगत माओवादी अभियान में लिप्त होने के आरोप में गिरफ्तार किया गया। कैसे अस्सी साल के एक वृद्ध को पुलिस ने टाडा लगाकर बंद कर दिया। इस खबर का असर यह हुआ कि तत्कालीन गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने राज्य सरकार की पत्र के माध्यम से सिंचाई की थी।
       सन 2010 के अन्य मामले में माओवादियों ने अपहृत वीडियो प्रशांत कुमार लायक की रिहाई के बदले न्यायिक हिरासत में बंद 14 लोगों के रिहाई की माॅग रखी।तो दूसरे दिन समाचार पत्रों ने खबर को ऐसे छापा कि माओवादियों ने अपने सर्मथक/कैडरों को छोड़ने की माॅग रखी है। निश्चय ही समाचार पत्रों ने प्रशासन के पक्ष को ही समझ कर ऐसा लिखा होगा। लेकिन इसके ठीक दो तीन दिनों के बाद दी पायोनियर ने प्रमुखता से एक समाचार को स्थान दिया था। दरअसल ये 14 लोग माओवादी नहीं वरन ऐसे गाॅववाले थे जिन्हें पुलिस ने माओवादी सर्मथक बताकर जेल में डाल रखा था। कहीं पर इन्हें माओवादी साहित्य रखने के आरोप में गिरफ्तार किया गया तो कहीं ऐसे ही मनगढं़त आरोप लगाये गये। इनसे संबंधित मामलों की पुर्नसमीक्षा के बाद राज्य सरकार ने इस बात को स्वीकार किया था कि पुलिस ने इन्हें मनगढ़ंत आरोपों के आधार पर गिरफ्तार किया। एक लड़की और उसके अस्सी वर्षीय वृद्ध पिता को स्थानीय पुलिस ने नक्सल सर्मथक होने के आरोप में गिरफ्तार किया। सच्चाई यह थी कि उस आदिवासी लड़की के सिपाही पति ने उसे छोड़ दूसरी शादी कर ली। जब वह लड़की पुलिस थाने में इसकी शिकायत दर्ज कराने की कोशिश तो उसके पति ने पुलिस की सांठगांठ से लड़की और उसके पिता को फंसा दिया।
       माओवादी आंदोलन को सामरिक तौर समाप्त करना उतना आसान नहीं दिखता है जबतक कि इसके उत्पति के कारण और उसके निदान की कारवाई साथ-साथ न हो। स्वयं गृहमंत्री चिदंवरम ने भी स्वीकार किया है कि उनके पास टोटल मैंनडेट नहीं है। छत्तीसगढ़ के कांग्रेस नेताओं यथा दिग्विजय सिंह और अजीत जोगी ने तो कांग्रेस अध्यक्षा श्रीमती सोनिया गाॅधी को पत्र लिखकर अपनी चिंता जाहिर करते हुए कहा कि इस तरह के अभियान से और भी हिंसा जन्म लेगी और पार्टी ‘आम आदमी’ से दूर जो जायेगी। देश के आंतरिक सुरक्षा के विषय पर बहस के दौरान चिंदबरम ने संसद से जानना चाहा कि सरकार को ऐसी परिस्थिति में क्या करना चाहिये जबकि माओवादी लोकतांत्रिक व्यवस्था और सरकार को बंदूक के सहारे उखाड़ फेंकना चाहते है। चिदंबरम ने जहाॅ सिविल सोसाइटी के लोगों को आड़े हाथों लेते हुए सरकार के खिलाफ दुष्प्रचार का आरोप लगाया वहीं उन्होंने माओवादियों के जून दस्तावेज को हवाला देते हुए कहा कि माओवादियों की शांति प्रस्ताव और समझौते में कोई रूचि नहीं है वे सशस्त्र संघर्ष के रास्ते सरकार को गिराना चाहते है