चन्द्रगुप्त “रस और द्वंद्व” का नाटक

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प्रेम, सौंदर्य, देशप्रेम, रहस्यानुभूति, दर्शन, प्रकृति-चित्रण, धर्म आदि विविध विषयों को अपनी विविध साहित्यिक रचनाओं के माध्यम से पाठकों तक पहुँचाने वाले जयशंकर प्रसाद का समग्र साहित्य प्राचीन भारतीय संस्कृति की गौरव और गरिमा के साथ-साथ भारतीय जीवन मूल्य का बहुमूल्य दस्तावेज है। नाटक के क्षेत्र में उन्होंने कई प्रयोग किए। नाटक की विकास प्रक्रिया में भारतेंदु के बाद जो अवरोध पैदा हो गया था उसे प्रसाद ने तोड़ा। विषय की दृष्टि से उनके नाटक मानव जीवन की अनेकरूपता, विशदता, समता एवं विषमता का समन्वय उपस्थित करता है, तो शिल्प की दृष्टि से भारतीय एवं पाश्चात्य शैली का प्रयोग दृष्टिगत होता है। प्रसाद न तो किसी रूढिगत परंपरा के अनुयायी थे और न ही नाट्यशास्त्र की बद्धमूल धारणाओं और मान्यताओं के अनुसरण में विश्वास रखते थे। उनके नाटकों में एक ओर इतिहास, दर्शन और आदर्श के प्रति रागात्मकता दिखाई पड़ती है, तो दूसरी ओर सांस्कृतिक चेतना, अनुभूति की तीव्रता और संवेदनशीलता की त्रिवेणी प्रवाहित हुई है।

प्रख्यात आलोचक नन्ददुलारे वाजपेयी के अनुसार – “प्रसाद के नाटक समकालीन परिवेश से प्रेरित हैं। उनके नाटकों का शरीर साहित्यिक और मनोवैज्ञानिक है पर मन ऐतिहासिक और आत्मा विशुद्ध सांस्कृतिक है। इसलिए समसामयिक इतिहास ने जो प्रश्न उठाए उनका समाधान भी उन्होंने नाट्य साहित्य के माध्यम से दिया  है।

द्वंद्व

          ‘चन्द्रगुप्त’ के रचियता जयशंकर प्रसाद की रचनाओं में अंतर्द्वंद्व का जो रूप दिखाई देता है वह प्रसादजी के लेखनी का मौलिक गुण है। ‘चन्द्रगुप्त’ में र्द्वंद्व गहन संवेदना के स्तर पर उपस्थित है। ‘चंद्रगुप्त के आरंभिक दृश्य में अलका सिंहरण से कहती है, ‘‘देखती हूँ  कि प्रायः मनुष्य दूसरों को अपने मार्ग पर चलाने के लिए रूक जाता है और अपना चलना बंद कर देता है।’’ सूत्र शैली में कहा गया यह वाक्य एक बड़े अंतविरोध को अपने में समाहित किए हुए है और इस द्वंद्व प्रक्रिया में अर्थ की अनेक परतें उघारता है। प्रसादजी का सर्जनात्मक गद्य यहां अपने पूरे वैभव पर है।

यह प्रसाद के नाट्य कौशल का ही परिणाम है कि वे चन्द्रगुप्त में कई कई दारातालों पर द्वंद्व-निर्वाह में सफल रहे. विदेशी और स्वदेशी शक्तियों का द्वंद्व को जाहिर है, पर दो संस्कृतियों – ब्राह्मण एवं बौद्ध की टक्कर या विकासशील चेतना तथा ह्रासशील चेतना, सुविधाकारी पीढ़ी तथा संघर्षशील पीढ़ी का संघात दिखाने में भी वे समर्थ रहे.

विश्वनाथ त्रिपाठी के शब्दों में, “चन्द्रगुप्त नाटक में एक ओर तो राजनैतिक चालें और चाणक्य का सूत्र-सञ्चालन है और दूसरी ओर उसका इन सबसे विरक्त ब्राह्मण व्यक्तित्व है. इससे उस पात्र में अंतर्द्वंद्व तो आ ही गया है, शील-वैचित्र्य भी आ गया है.”

रस

प्रसाद के नाटक रासश्रयी हैं. इस धरातल पर वे भारतीयता की रक्षा करते हैं. नाट्यशास्त्र के नियानुसार ‘चन्द्रगुप्त’ का अंगी रस है वीर. वीरता के कई आयाम हैं चन्द्रगुप्त और सिंहरण में साहस और शक्ति है, चाणक्य में मनोबल और तेजस्विता है, अलका में दुर्गा का बिम्ब है. इसी प्रकार श्रृंगार के अलग-अलग छवि-चित्र हैं. चन्द्रगुप्त को चाहने वाली कल्याणी, मालविका और कार्नेलिया की प्रेमाभिव्यक्ति का रंग समान नहीं है. सिंहरण-अलका में राष्ट्रीयता और रोमांटिकता का मणि-कांचन योग है.चाणक्य-सुवासिनी-नन्द का त्रिकोण एक और तरह का आस्वाद देता है. प्रसाद वीर और श्रृंगार रस की पारस्परिकता को निभाने में बहुत सफल रहे हैं. अपने चिंतन के अनुरूप वे इस नाटक में चाणक्य और दाण्डयायन के माध्यम से तप और त्याग जैसे उच्चतर मूल्यों पर बल देते रहे हैं. शांत रस की इस अन्तर्धारा ने सारे नाटक को आप्लावित किया है. इसी जीवन दृष्टि से अनुप्राणित होकर नाटक के अंत में चाणक्य ‘चलो अब हम लोग चलें’ कहते हैं.             उपर्युक्त तीनों रसों के निर्वाह में प्रसाद की चेष्टा शास्त्रीय मर्यादाओं की ओर न जाकर उनकी स्वच्छंद प्रस्तुति में रही.

निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि प्रसाद ने स्वतंत्र-नाट्य-कला का प्रणयन किया. बाहरी प्रभावों को आत्मसात् करने की अद्वितीय क्षमता का ही यह परिणाम है कि वे अपने नाटकों की आत्मा भारतीय रखने में सफल रहे. रस-पतिष्ठा पर बल देने के कारण ‘चन्द्रगुप्त’ में आद्योपांत भावप्रवणता एवं तरलता का अनुभव होता है. इसके मूल में निहित आस्थावादी जीवन-दृष्टि कार्य कर रही है जिसकी परिणति सामरस्य में होगी. ‘चन्द्रगुप्त’ में कई बिन्दुओं और धरातल पर द्वंद्व का निर्वाह किया गया है. विदेशी साम्राज्यवाद शक्ति के विरुद्ध राष्ट्रीय भावनाएं तो सारी कृति में विद्यमान है. ब्राह्मण और बौद्ध संस्कृतियों से द्वंद्व से जातिगत सांप्रदायिक द्वंद्व को व्यक्त किया गया है. एक ओर राष्ट्र-संग्राम में तत्पर और साहसी पीढ़ी है –चाणक्य-चन्द्रगुप्त-सिंहरण की, दूसरी ओर अवसरवादी पीढ़ी है – आम्भीक और राक्षस की. वैयक्तिक स्तर पर नैतिकता-अनैतिकता, सत्-असत् का द्वंद्व दिखाया गया है. इस तरह चन्द्रगुप्त नाटक में बराबर नाट्य-व्यापर मिला है. वैयक्तिक धरातल पर पात्रों के अंतर्जगत् की परतें खोलने में प्रसाद ने संवेदना एवं सहानुभूति का परिचय दिया है.