नारी- अरमानो की मूरत

 

नारी वह मूरत है, जिसमे अपरंपार सहनशीलता है। कोमल पुष्प की तरह जग महका ने की क्षमता है। अपने कर्म में  केवल अपने ही नहीं, बल्कि अपनो के अरमानो को आवाज़ देती है यह नारी। साँसे तो उसकी है, लेकिन जीती दूसरो की ज़िंदगी है।

कौन कहता है उसके अपने सपने नही? अपना लक्ष्य नही? अपनी ज़िंदगी नही? .. वह जो दूसरो के सपने को अपना माने , दूसरो के लक्ष्य पाने का हौसला बने, जिसकी दुआ में दूसरों की ज़िंदगी हो। उनकी खुशियों की कामना हो.. ऐसी नारी जिसका अस्तित्व केवल उससे नहीं बल्कि उससे जुड़े उस हर शक्स  से है, वह अकेली नहीं बल्कि बंधन की ऐसी मज़बूत डोर है जिसके आँचल मे सब महफूज़ है।  
              
 नारी- जब जन्मी तब नन्ही सी परी- कुद्रत का वह करिश्मा जिसके स्पर्श से घर- आँगन सुशोभित हो। जिसके आने से इंसानो की इस नगरी में कोई फूला न समाया तो किसी के मन न  भाया। दुनिया की माया से बेख़बर वह अपनी किस्मत स्वयं बनाती है। मासूमियत की वह मूरत बेटी के रूप मे माता-पिता का प्यार पति है। उनका ख्याल रखती है। गुण से परिपूर्ण मा की संस्कारो से पली उसकी परछाई बनती है। भैया की वह बहन बनती है, जो कलाई पर बँधी उस रेशम की डोर से रक्षा की कामना करती है।
                
किसी दिन वह एक स्त्री बनती है- सभ्य, सुशील, स्वतंत्र, स्वावलंबी, अपने नाम पर इतना गर्व करने वाली यह स्त्री किसी दिन अपने पति के नाम को जोड़ती है। देखा जाए तो वह अपना नाम भी अपने साथ नही रखती अपना सब कुछ त्याग केवल विश्वास की बनी नीव- शादी से बँधी डोर को निभाने पति के संग चल पड़ती है।
                
अपने परिवार के साथ बिताई उन हर याद को समेट कर एक नयी पहचान बनती है। ससुराल मे पति से जुड़े उस हर रिश्ते को अपनाती है। कितनी खुश किस्मत है यह नारी! इस एक जीवन मे काई रिश्ते को सावर्ति है।  दो माता का प्यार पति है- एक जो जननी है और एक मा जिसका साथ जन्म्भर निभाती है। कही बेटी तो कही बहू की भूमिका भखूबी निभाती है। पत्नी धर्म ,गृहणी बनकर पति का सर्वोत्तम अपनाती है।

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नारी के ज़िंदगी की सबसे बड़ी खुशी उसे तब महसूस होती है जब वह एक मा बनती है। एक नन्ही सी जान को खुद मे महसूस करती है। नो महीने अपनी कोख मे रखती है, सारी पीड़ा खुशी-खुशी सहन करती है। सिने का दूध पिलाकर बड़ा करती है। उस नन्हे शिशु मे अपनी ज़िंदगी तरासती है। लाड़, प्यार, शिक्षा, संस्कारो से उसे सिंचती है। किसी दिन वा भी एक सास बनती है. अपने घर एक गृहणी का स्वागत करती है। घर- संसार को सदा आगे बढ़ने की डोर देती है, तो कही दिल पर पठार रख अपनी छवि को विदा करती है।
              
नारी क्या केवल रिश्तों मे बँधी है?? – नही, जेसे उसके बिना यह संसार आगे नही बढ़ सकता, उसी प्रकार उसके ठहर जाने से घर का कोई कम आगे नई बढ़ सकता। परिवार के सभी सदस्यो से पहले उठती है यह नारी। घर का सारा काम, लगभग दिन की आधी दिनचर्या सबके उठने के पूर्व ही पूर्ण हो जाती है।

छोटे से लेकर बड़े तक की हर ज़रूरत का ख्याल रखती है। स्वयं भूकी रहकर सबका पेट भारती है अपने प्यार से बनाए स्वादिष्ट व्यंजन से। सुबह से लेकर रात तक सबका ख्याल रखती है। सबके सो जाने के बाद सोती है। एक संपूर्ण गृहणी अपनी गृहस्ति संभालती है।
              
 वयस्क होने पर कमजोर भले हो जाती है, फिर भी इतनी मजबूत होती है की अपना और अपने जीवनसाथी का ख्याल रख सके। नाती पोतो को कहानिया सुनकर अची शिक्षा प्रदान कर सके ।
                
नौकरी मे वक्त आने पर निवृत्ति मिलती है, लेकिन नारी की जीवनगाथा मे वा सदा ही अपना कर्तव्य निभाती है। कभी ना रुकने वाली केवल यह नारी है। प्यार इसकी सॅलरी है, किंतु यदि ना भी मिले तो वा रत्ती नही। अपने सिधन्त, कर्तव्य को आगे रख कर सदा दूसरो को प्रेम बाटी है।
                
जल की तरह निर्मल, पवित्र, पवन, स्थिर, हर परिस्थिति मे ढाल जाने की क्षमता रखती है।
किसीने सच ही कहा है, ” पुरुष अपने कुल को तारता है, किंतु नारी दो कुलो को तारती है! “

 

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