ज़िद्दी लड़की – रमणिका गुप्ता

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अपने घर से कोसों दूर जंगलों पहाड़ियों में पैदल घूमना, दलित आदिवासियों के पास जाकर उनकी स्थिति को जानना, मजदूरों की झोपड़ियों में बैठकर उनकी बात सुनना उनकी परेशानियों, डर, अभावों को दूर करना, उनके हक के लिए संघर्ष करना काफी मुश्किल कार्य है। परेशानियां और भी बढ़ जाती हैं जब इस काम को करने वाला व्यक्ति उस वर्ग, क्षेत्र और माहौल का ना हो और हालात और भी बिगड़ जाते हैं जब यह कार्य करने वाला एक पुरुष नहीं बल्कि एक स्त्री हो।

ऐसी ही स्त्री थी रमणिका गुप्ता (22 अप्रैल 1930) कोयला, कुदाल, कलम आदि से घिरी हुई रमणिका जी की जन्मभूमि पंजाब का सुनाम रहा और कर्म भूमि झारखंड का कोयलांचल प्रदेश और दिल्ली।रमणिका जी का जीवन काफी वैविध्य पूर्ण और संघर्षशील रहा, रमणिका जी ने शुरुआत

राजनीति से की वह बिहार/झारखंड की पूर्व विधायक एवं विधान परिषद् की सदस्या रही और वही से उन्होंने आदिवासियों दलितों और मजदूरों के लिए कार्य करना शुरू किया, उन्होंने कोयलांचल वासियों के लिए काफी संघर्ष किया और ताउम्र समाज सेवा करती रही। इसी के साथ रमणिका जी ने साहित्य में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, उन्होंने दलित आदिवासियों के साहित्य को उसके सही मुकाम तक लाने के लिए कड़ा परिश्रम किया। यानी कि रमणिका जी की यात्रा राजनीति से शुरू होते हुए समाज सेवा से गुजरती हुई साहित्य पर आकर रुकी। रमणिका जी कई गैर-सरकारी एवं स्वयंसेवी संस्थाओं से संबंधित तथा सामाजिक, सांस्कृतिक व राजनैतिक कार्यक्रमों में सहभागिता करती रही।

जब साहित्यकार पैसों की चकाचौंध और सत्ता साहित्य की राजधानी दिल्ली के मोह में उलझे हुए थे तब रमणिका जी ने अपने लेखन और जीवन के लिए आदिवासियों और हाशिए पर खड़े लोगों का चुनाव किया, जहां आज भी लोग रोटी कपड़ा और मकान के लिए संघर्ष कर रहे हैं। उन्होंने केवल

उनकी आवाज ही नहीं उठाई बल्कि रमणिका फाउंडेशन बनाकर उनके लेखन और संघर्ष को दुनिया तक पहुंचाया।

रमणिका जी के लेखन में बिहार की राजनीति से लेकर झारखंड के कोयला मजदूरों और आदिवासियों का संघर्ष साफ नजर आता है। रमणिका जी की सबसे बड़ी उपलब्धि रही उनका दलित आदिवासी और स्त्री साहित्य जिसने रमणिका जी को एक अलग पहचान दिलाई। रमणिका जी ने दलितो, आदिवासियों और स्त्रियों को साहित्य के केंद्र में लाने का काम किया। जहां पहले दलितों के लेखन को साहित्य से दूर रखा जाता था और दलित लेखक संगठित नहीं थे ऐसी स्थिति में रमणिका जी ने अपनी अगुवाई में कई बड़े-बड़े दलित साहित्य उत्सव करवाएं जिसके कारण दलित लेखन को साहित्य में जगह मिली और दलित लेखकों को संगठित होने का मौका मिला।

रमणिका जी ने पंजाबी, गुजराती, मराठी, तमिल, तेलुगू, कन्नड़, मलयालम आदि भाषा में रचित दलित साहित्य को हिंदी में अनुवादित करवाया साथ ही अपने डिफेंस कॉलोनी स्थित आवास और ऑफिस में हर महा नवीन रचनाकारों के कविता पाठ और बौद्धिक विमर्श का केंद्र बनाया।रमणिका जी ने “रमणिका फाउंडेशन” की स्थापना भी की इसी के साथ 1987 से अब तक “युद्धरत आम आदमी” नामक पत्रिका का संपादन भी किया। जिसमें उन्होंने हाशिए के लोगों के साहित्य को, दलितों और स्त्रियों के साहित्य को और नए-नए रचनाकारों को स्थान दिया।

रमणिका जी ने कुल अट्ठारह कविता संग्रह, दो उपन्यास, दो कहानी संग्रह, एक यात्रा संस्मरण, दो आत्म कथाएं लिखी और साथ ही इन्होंने 90 के लगभग किताबों का संपादन भी किया और अभी भी इनकी कई पुस्तकें प्रेस में हैं। रमणिका जी ने सिर्फ हिंदी ही नहीं बल्कि लगभग सभी भारतीय भाषाओं के साहित्य को संचित एवं संपादित करके अमूल्य निधि का संचयन किया। रमणिका जी ने समस्त जीवन शिक्षा को काफी महत्व दिया और नई पीढ़ी के लोगों को शिक्षा के प्रति जागरूक भी किया इसी कड़ी में उन्होंने अपनी निजी लाइब्रेरी की लगभग 3000 पुस्तके जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के भाषा संस्थान की लाइब्रेरी को दान दी।

26 मार्च 2019 को रमणिका जी ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया। उन्होंने जीवन को भरपूर आनंद और उमंग के साथ जीने के अतिरिक्त ज्ञान की खोज और उस ज्ञान को समाज उपयोगी बनाने के लिए अपने अंत समय तक निरंतर परिश्रम किया। वे वहाँ आकर ठहरी है जहाँ लगता है कि उनकी अभिराम यात्रा को अब हमें आगे ले जाना है।