सार्वजनिक क्यों नहीं की गई जातिगत जनगणना की रिपोर्ट

Like this content? Keep in touch through Facebook

 

census-sl-4-1-2012सवाल बड़ा सीधा है। देश में हर दस वर्षों पर जनगणना की जाती है। वर्ष 2001 के बाद वर्ष 2011 में भी इस परंपरा का निर्वाह किया गया। हालांकि वर्ष 1931 में हुई जनगणना के बाद पहली बार जातिगत जनगणना की बात कही गयी। पूरे देश में इस मुद्दे को लेकर चर्चाओं का दौर चला।

बुद्धिजीवियों ने समर्थन और विरोधी खेमों में बंटकर जातिगत जनगणना के इस प्रस्ताव के संदर्भ में अपनी-अपनी राय दी। राजनीतिक स्तर पर भी विरोध किया गया। भाजपा और वामपंथी दलों ने जातिगत जनगणना का विरोध किया। वहीं लालू प्रसाद और मुलायम सिंह यादव के लीडरशिप में सामाजिक न्याय के पैरोकारों ने जातिगत जनगणना के लिये अपनी ओर से भरसक प्रयास किया था।

इनका प्रयास रंग लाया और केंद्र की कांग्रेस सरकार जातिगत जनगणना के लिए तैयार हुई। वर्ष 2011 में शुरु हुए जनगणना में जाति संबंधी सूचनायें हासिल करने के लिए अलग से एक प्रक्रिया की शुरुआत की गयी। लेकिन खास बात यह है कि केंद्र सरकार ने भी जातिगत जनगणना के सवाल पर गेम ही किया। इसे प्रत्यक्ष तौर पर जातिगत जनगणना के रुप में मान्यता देने के बजाय उसने सामाजिक गणना की संज्ञा दी गयी। खास बात यह भी है कि भारत सरकार के जनसंख्या निदेशालय ने समय पर सामान्य जनगणना की प्रोविजनल रिपोर्ट जारी कर दी। बाद में समय पर ही सेंसस के फ़ाइनल फ़िगर भी सार्वजन्कि कर दिये गये। वहीं जातिगत जनगणना के बारे में कहा गया कि इसके लिए अलग से प्रक्रिया अपनायी जायेगी। फ़िर इसके बाद इस अति महत्वपूर्ण कार्य को टरकाने का नया गेम खेला गया।

जातिगत जनगणना के कार्य को अंजाम देने की जिम्मेवारी जनसंख्या निदेशालय ने कई विभागों को हस्तांतरित कर दी गयी। इस कार्य के लिए एनजीओ आदि का सहयोग लिया गया। जैसे-तैसे ही सही भारत सरकार के अनुसार जातिगत जनगणना का कार्य अगस्त, 2013 में समाप्त हो गया। लेकिन सबसे अधिक आश्चर्यजनक यह है कि आज तक इस जनगणना के फ़लाफ़ल सार्वजनिक नहीं किये गये। सवाल यही है कि आखिर ऐसा क्यों किया गया? यह सवाल इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि देश में चुनाव होने वाले हैं। कहीं सरकार इस रिपोर्ट को सार्वजनिक करने से इसलिए तो नहीं डर गयी कि यदि देश के दलितों और पिछड़ों को उनकी वास्तविक संख्या का ज्ञान हो जायेगा तो वे अपने अधिकारों को लेकर और अधिक सशक्त हो जायेंगे।

फ़ौरी तौर पर देखें तो जातिगत जनगणना की रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं करने के पीछे एक मात्र यही कारण सटीक प्रतीत होता है। इसकी एक ठोस वजह भी है। दरअसल, आजादी के बाद अब तक की सबसे बड़ी सच्चाई यही है कि देश के संसाधनों और सरकारी सेवाओं में गैर आरक्षित वर्गों का वर्चस्व है। वह तो मंडल कमीशन के लागू होने का प्रभाव है कि आज देश की राजनीति में लालू प्रसाद, मुलायम सिंह यादव और मायावती जैसे नेताओं के चेहरे देखने को मिल जाते हैं। इसके अलावा देश के संसद में दलितों और पिछड़ों की संख्या में उत्साहजनक वृद्धि हुई है। वहीं दूसरी ओर एक सच्चाई यह भी है कि देश के विकास पर अपना कब्जा जमाये गैर आरक्षित वर्ग की संख्या आरक्षित वर्गों की आबादी की तुलना में कम बढी। इसकी वजह वंचित तबकों में अशिक्षा, अज्ञानता व गरीबी है।

]बहरहाल, गैर आरक्षित वर्ग के हुकमरान इस तथ्य को जानते-समझते हैं कि देश की आबादी में आरक्षित वर्गों की संख्या में वृद्धि हुई है। यह वृद्धि कितनी हुई है, अगर यह जानकारी इस तबके को मिल जाये तो संभव है कि वे अपने अधिकारों के लिए और सशक्त होकर आंदोलन करें। अगर ऐसा हुआ तो देश के संसाधनों पर गैर आरक्षित वर्गों का वर्चस्व समाप्त हो जाएगा और देश की राजनीतिक और सामाजिक जड़ता समाप्त हो जाएगी। वैसे उम्मीद की जानी चाहिए कि गैर आरक्षित वर्गों की यह साजिश आज न कल सामने आ ही जाएगी और गैर आरक्षित वर्गों को अपनी औकात का पता चल जाएगा। समाज के कई क्षेत्रों में इसके लक्षण स्पष्ट दिखायी दे रहे हैं।