नर्मदा की यात्रा

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the-Narmada-journeyतेरह सौ किलोमीटर का सफर तय करके अमरकंटक से निकलकर नर्मदा विनध्य और सतपुड़ा के बीच से होकर भडूच के पास खम्भात की खाड़ी में अरब सागर से जा मिलती है। ऐतिहासिक दृष्टि से नर्मदा के तट बहुत ही प्राचीन माने जाते हैं। पुरातत्व विभाग मानता है कि नर्मदा के तट के कई इलाकों में प्राचीन सभ्यताओं के अवशेष पाएं गए हैं। ये सभ्यताएं सिंधु घाटी की सथ्यता से मेल खाती है साथ ही इनकी प्राचीनता सिंधु सभ्यता से भी मानी जाती है।

देश की सभी नदियों की अपेक्षा नर्मदा विरित दिशा में बहती है। नर्मदा एक पहाड़ी नदी के होने के कारण कई स्थानों पर इसकी धारा बहुत ऊंचाई से गिरती है। अनेक स्थानों पर यह प्राचीन और बड़ी-बड़ी चट्टानों के बीच से सिंहनाद करती हुई गुजरती है।

भारत की नदियों में नर्मदा का अपना महत्व है। न जाने कितनी भूमि को इसने हरा-भरा बनाया है। कितने ही तीर्थ आज भी प्राचीन इतिहास के गवाह हैं। नर्मदा के जल का राजा है। मगरमच्छ जिसके बारे में कहा जाता है कि धरती पर उसका अस्तित्व 25 करोडत्र साल पुराना है। मां नर्मदा मगरमच्छ पर सवार होकर ही यात्रा करती है, तो आओ चलते हैं हम भी नर्मदा की यात्रा पर।

अमरकंटक नाम का एक छोटा सा गांव है। उसी के पास से नर्मदा एक गोमुख से निकलती है। कहते हैं, किसी जमाने में यहां पर मेकल, व्यास, भृगु और कपिल आदि श्रृषियों ने तप किया था। ध्यानियों के लिए अमरकंटक बहुत ही महत्व का स्थान है।

मंडलाः
नर्मदा का पहला पड़ाव मंडला है, जो अमरकंटक से लगभग 285 कि. मी. की दूरी पर नर्मदा के उत्तरी तट पर बसा है। सुंदर घाटों और मंदिरों के कारण यहां पर स्थिति सहस्रधारा का दृश्य बहुत सुंदर है। कहते हैं कि राजा सहस्रबाहु ने यहीं अपने हजार भुजाओं से नर्मदा को प्रवाह को रोकने का प्रयत्न किया था इसलिए उसका नाम ’सहस्रधरा’ है।

भेड़ा-घाटः
यह स्थान जबलपुर से 18 कि. मी. पर स्थित है। किसी जमाने में भृगु श्रषि ने यहां पर तप किया था। उत्तर की ओर से वामन गंगा नाम की एक छोटी नदी नर्मदा में मिलती है। इस संगम अर्थात भेड़ा के कारण ही इस स्थान को ’भेड़ा-घाट’ कहते हैं। यहां थोड़ी दूर पर नर्मदा का एक ’धुंआँधार’ प्रपात है। धुआँधार के बाद साढ़े तीन कि. मी तक नर्मदा का प्रावह दोनों ओर सौ-सौ फुट से भी अधिक ऊँची संगमरमरी दीवरों के बीच से सिंहनाद करता हुआ गुजरता है।

होशंगाबादः
भेड़ा-घाट के बाद दूसरे मनोरम तीर्थ हैं- ब्राह्मण घाट, रामघाट, सूर्यकुंड और होशंगाबाद। इसमें होशंगाबाद प्रसिद्ध है। यहां पहले जो गांव थ, उसका नाम ’नर्मदा’ था। इस गांव को होशंगाबाद ने नए सिरे से बसाया था। यहां सुंदर और पक्के घाट हैं, लेकिन होशंगाबाद के पूर्व के घाटों का ही धार्मिक महत्व है।

नेमवारः
होशंगाबाद के बाद नेमावर में नर्मदा विश्राम करती है। नेमावर में सिद्धेश्वर महादेव का महाभारत कालीन प्राचीन मंदिर है। नेमावर नर्मदा की यात्रा का बीच का पडत्राव है, इसलिए इसे ’नाभि स्थान’ भी कहते हैं। यहां से भडूच और अमरकंटक दोनों ही समान दूरी पर हैं। पुराणों में इस स्थान का ’रेवाखंड’ नाम से कई जगह महिमामंडल किया गया है।

धायड़ी कुंडः
नेमावर और ऊँकारेश्वर के बीच धायड़ी कुंड नर्मदा का सबसे बड़ा जल प्रताप है। 50 फुट की ऊँचाई से यहाँ नर्मदा का जल एक कुंड में गिरता है। जल के साथ-साथ इस कुंड में छोटे-बड़े पत्थर भी गिरते रहते हैं, जो जलघर्षण के कारण सुंदर, गोल और चमकीले शिवलिंग बन जाते हैं। सारे देश में शिवलिंग अधिकतर यहीं से जाते हैं। यहीं पुनासा की जल विधुत योजना का बांध तबा नदी पर बना है।

ऊँकारेश्वरः
कहते हैं कि बराह कल्प में जब सारी पृथ्वी जल में मग्न हो गई थी ता उस वक्त भी मार्केंडय ऋषि का आश्रम जल से अछूता था। यह आश्रम नर्मदा के तट पर ऊँकारेश्वर में है। ऊँकारेश्वर में ज्योर्तिलिंग होने के कारण यह प्रसिद्ध प्राचीन हिंदू तीर्थ है। ऊँकारेश्वर के आसपास दोनों तीरों पर बड़ा घना वन है, जिसे ’सीता वन’ कहते हैं। वाल्मीकी ऋषि का आश्रम यहीं कहीं था।

मंडलेश्वर और महेश्वरः
ऊँकारेश्वर से महेश्वर लगभग 64 कि. मी. की दूरी पर स्थित है। महेश्वर से पहले नर्मदा के उत्तर तट पर एक कस्बा है मंडेश्वर। विद्वानों का मत है कि मंडल मिश्र का असली स्थान यही हैं और महेश्वर को प्राचीन माहिश्मती नगरी माना जाता है। महेव्श्वर से कोई 18 कि. मी. पर खलघाट है। इस स्थान को ’कपिल तीर्थ’ भी कहते हैं। कपिल तीर्थ से 12 कि. मी. गया है। स्कंद -पुराण और वायु पुराण में इसका उल्लेख मिलता है।

शुक्लेश्वरः
धर्मपुरी बाद कुश ऋषि की तपोभूमि शुक्लेश्वर से आगे नर्मदा माता चिरवलदा पहुंचती हैं। माना जाता है कि यहां विश्वामित्र, जमदिग्न, भारद्वाज, गौतम, अन्नी वसिष्ठ और कश्यप आदि मुनियों ने तप किया था।

बवन गजाः
शुक्लेश्वर से लगभग पांच कि. मी. बड़वानी के पास सतपुड़ा घनी पहाडि़यों में बावन गजा में भगवान पाश्र्वनाथ की लगभग 74 फुट ऊँची मूर्ति है। यह एक जैन तीर्थ है। बावन गजा की पहाड़ी के ऊपर एक मंदिर भी है। हिन्दुजन इसे दत्तात्रेय की पादुका कहते हैं। जैसे इसे मेघनाद और कुंभकरण की तपोभूमि मानते हैं।

शूलपाणीः
ब्वान राजा के आगे वरूण भगवान की तपोभूमि हापेश्वर के दुर्गम जंगल के बाद शूलपानी नामक तीर्थ है। यहां शूलपानी के अलावा कमलेश्वर, राजराजेश्वर आदि और भी कई मंदिर है।

अन्य तीर्थः
शूलपाणी से आगे चलकर क्रमशः गरूड़ेश्वर, शुक्रतीर्थ, अंकतेश्वर, कर्नाली, चांदोद, शुकेश्वर, ब्यासतीर्थ होते हुए नर्मदा अनसूईयामाई के सथन पहंुचती हैं, जहाँ अत्री – ऋषि की आज्ञा से देवी अनसूईयाजी ने पुत्र प्राप्ति के लिए तप किया था और उससे प्रसन्न होकर ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीनों देवताओं ने यहीं दत्तात्रेय के रूप में उनका पुत्र होकर जन्म ग्रहण किया था। आगे नर्मदा कंजेठा पहुंचती है जहाँ शकुन्तला के पुत्र भरत ने अनेक यज्ञ किये। फिर और आगे सीनोर में एतिहासिक और धार्मिक दुष्टिी से अनेक पवित्र स्थान से गुजरती है।

अंगारेश्वरः
सीरोन के बाद भडूच तक कई छोटे-बड़े गांच के बाद अंगारेश्वर में मंगल ने तप करके अंगारेश्वर की स्थापना की थी। कहते हैं कि अंगारेश्वर से आगे निकोरा में पृथ्वी का उद्धार करने के बाद बराह भगवान ने इस तीर्थ की स्थापना की। फिर आगे क्रमशः लाडवां में कुसुमेश्वर तीर्थ है। मंगलेश्वर में कश्यप् कुल में पैदा हुए भार्गव ऋषि ने तप किया था।

यात्रा का अंतः
इसके बाद कुछ मील चलकर नर्मदा भडूच पहंुचती है, जहां नर्मदा समुद्र में मिल जाती है। भडूच को ’भृगु-कच्छ’ अथवा ’भृगु-तीर्थ भी कहते हैं। यहां भृगु ऋषि का निवास था। यहीं राजा बलि ने दस अश्वमेघ-यज्ञ किए थे। भडूच के सामने के तीर पर समुंद्र के निकट विमलेश्वर नामक स्थान है।