गणतंत्र दिवस पर विशेष: खतरे में भारतीय अस्मिता

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26 जनवरी 1950 का दिन स्वतंत्र राष्ट्र का उदय उसकी संकल्प सिद्धि का दिवस था। बहुत गहरी प्रसव पीड़ा के बाद अंततः भारतीय स्वतंत्रता या यों कहें कि भारतीय अस्मिता का जन्म हुआ था, किन्तु अफसोस कि इसके उत्पन्न होते ही इसके अपने ही जन्मदाताओं ने बड़ी चालाकी से शल्य चिकित्सा द्वारा इसका अंग विभाजन कर इसे पहले दो और फिर तीन मुल्कों में विभाजित कर दिया।

यूँ तो हम प्रतिवर्ष संघर्ष और बलिदानों के स्वप्न को साकार करने वाले इस गणतंत्र दिवस को बड़ी ही धूमधाम से मनाते हैं। तमाम दिखावे और आंडम्बरों के बीच यहाँ के जन, गण और तंत्र के प्रति कर्तव्यों की इतिश्री भी मान लेते हैं। लेकिन सही अर्थों में देखें तो आज देश के स्वास्थ्य की चिन्ता करने वाले निष्ठान पहरूआ वैध कहीं नहीं हैं और न ही निर्मय निष्पक्ष रूप से इसकी सुख स्मृद्धि से किसी को कुछ लेना देना है।

ऐसे में जयशंकर प्रसाद जी के शब्द सार्थक ही प्रतीत होते है कि “ आर्यावर्त का भविष्य लिखने के लिए कुचक और प्रतारणा की लेखनी और मसि प्रस्तुत हो रही है।“ आज इस स्वतंत्र गणतंत्र की हर राजनैतिक पार्टी यहाँ के युवक-युवतियों के मन मस्तिश्क को मादक स्वपन दिखाकर उनके कंधो को अपनी पार्टी के उदेश्य पुर्ति हेतु था सही शब्दों में कहें तो अपने निजी स्वार्थ के लिये इस्तंमाल करते हैं।

विदेशी सभ्यता की रंगीनी और एशवर्यपुर्व जीवन का ऐसा मकड़जाल उनके चारों और बिछाया जा रहा है कि वो पैसा कमाने के लिए अपनी अन्तर्रात्मा अपना ईमान और इन सबसे ऊपर अपने देश को भी बेचने से परहेज नहीं करते। सभी गणतंत्र का नाम तो लेते है। पर प्रादेशिक संकीर्मताओं से ग्रस्त, निजी स्वार्थों से चिंतित जातिवाद से दंशित एवं विदेशी आयत के प्रति लुभावनी निगाह से देखते हुए हीन-भाव से ग्रस्त है।

यहीं नहीं यहाँ का मध्य उच्चमध्य वर्ग का ‘यूथ’ जिसे हम विद्यार्थीं कहते हैं वह भी उत्तर आधुनिकता से जन्मी पश्चात्ये संस्कृति की रंगीनी में दिग्भ्रमित हो भटक रहें हैं, और सबसे बड़ा सच तो है कि हमारे वर्तमान संविधान ने हमें अधिकारों के प्रति सजग तो किया है पर कत्र्तव्य अथवा दायित्व बोध के प्रति समाज के विभिन्न घटकों में केंद्रीय समर्पण भाव नहीं जगाया। परिवार समाज और राष्ट्र के प्रति क्या कत्र्तव्य होते है इसका कोई ड्राफ्ट तैयार नहीं किया गया।

राजनीति और राजनैतिक पार्टियों को सत्ता पर काबि़ज होने के गुर तो सिखा दिये, लेकिन सत्ताधिकारियों को ये बोध नहीं कराया गया कि राष्ट्र और राष्ट्र के जन- जीवन के प्रति भी उनके कुछ दायित्त्व होते हैं जिनका र्विहन अनिवार्य हैं। यही नहीं राजनीति की शिकार हो गई। आज भ्रष्टाचार, अनाचार, अत्याचार, काला धन भारतीय राजनीति का अहम एवं व्यापक अंग बन गया है।

वस्तुतः हमारे राष्ट्र की जन-चेतना का मूल विकास, व्यक्ति का केन्द्र में रखकर पुरुषार्थ चतुष्टये अर्थात धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की विचार भूमिका में पव्लवित हुआ है। ”माता भूमि पुत्रोऽहं पृथिव्यां का भाव संकलल्प यहां की जन-आस्था और मिट्टी के कण-कण में विद्यमान था और शायद आज भी इसी भाव की आवश्यकता है तभी भारतीय जन आस्था में राष्टीय अस्मिता धरोहर का स्थान ले पायेगी और साथ ही आगे आने वाली पीढि़यों को निरन्तर याद दिलाते रहने का दायित्व निश्चित ही हमारे गएतंत्र का कर्तव्य हो हमें अपनी संतानो को बताना होगा कि भारतीय आजादी बख्शीस में नहीं मिली वरन इस आजादी के संघर्श में हमारे हजा़रों-सैकड़ो वीर सपूतो ने अपना शीश मातृभूमि के चरणों में भेंट किए है। कवि दिनकर के शब्दों में –

जला अस्थियाँ बारी-बारी
छिटकाई जिन्होंने चिंगारी
जो चढ़-गए पुण्य-वेदी पर,
लिए बिना गरदन का मोल”
कलम आज उनकी जय बोल।

और जब कलम और प्रत्येक मुख भारत के वीर सपूतों की जय बोलेगा तो स्वतः ही स्वतंत्रता सार्थक और कल्याणकारी होगा।