बिहार में बंधुआ मजदूरों की बदहाली

क्या देश कि आजादी के 65 वर्ष बाद भी वाकई बंधुआ मजदूर हैं ? अगर है तो 1976 में केन्द्र द्वारा लागू बंधित श्रम पद्धति अधिनियम क्या हुआ। क्यों नही होती इस अधिनियम के तहद कार्यवाई। जहाँ अब भी केन्द्र सरकार और राज्य सरकार अपनी दरीयादिली बन्धुआ मजदूरों पर दिखला रही है।

सरकार एक बन्धुआ मजदूर के पूनर्वास पर बीस हजार रूपया खर्च करती है पिछले चार वर्षो में बिहार के 1300 से अधिक बन्धुआ मजदूरों को अन्य राज्यों से मुक्त करा पूनर्वास योजना का लाभ दिया गया। सरकार कि माने तो ये सभी मजदूर अन्य राज्यों के चूड़ी ,कालीन व पर्स बनाने के छोटे मोटे धंधो से जुड़े थे वर्ष 2011-2012 में बिहार के 102 बंधुआ मजदूरों को अन्य राज्यों से विमुक्त कराये गये। इन सभी के पूनर्वास पर लाखो रूपये खर्च किये गये हैं।

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आकड़ो के मुताबिक पिछले चार वर्षो में 1307 मजदूर अन्य राज्यों से विमुक्त कराये गये हैं जो जोखीम भरे कार्यो में लिप्त थे जबकी 1976 में हि बंधुआ मजदूरी के खात्में के लिए कानून बने जिसके तहद ऐसा करने वालों को जेल भेजने का प्रवधान है। किन्तु नियम कि अनदेखी होने से आज भी बंधुआ मजदूरों की पहचान हो रही है। ऐसा लगता है कि बंधुआ मजदूर और पैकेज का रिस्ता कायम हो गया है। वर्ष 2008-09 में जहां 425 मजदूरों को विमुक्त करा पूनर्वास कराया गया वहीं 2010-2011 में 580 मजदूरों को ऐसे कर पिछले तिन वर्षो मे 1307 मजदूरों के पूनर्वास पर लाखो खर्च किए गए।

ऐसे मे सवाल यह उठता है कि 36 वर्ष पूर्व कानून बने फिर भी बंधित श्रम परम्परा बदस्तूर जारी है जबकी जिला एवं प्रखण्ड स्तर पर सतर्कता समिती का गठन करने का भी प्रवधान है ऐसे में सरकार पूनर्वास पर खर्च कर रही पर कानून पर अमल क्यों नहीं कर रही। क्यों कानून को ठेंगा दिखा आज भी बंधुआ मजदूरी कराई जा रही अगर वास्तव में बंधुआ मजदूर है तो सरकार कठोर कदम क्यों नहीं उठा रही और अगर सरकार कठोर है तो फिर ये सरकारी पैसे कागजी घोड़े तो नहीं खा रहे यह अपने आप मे एक जांच का विषय है।

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