प्रकृति पर हावी होती मानव की आवश्यकताएं

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विज्ञान और प्रौद्योगिकी की कोख से ही नई भोगवादी सभ्यता का जन्म हुआ है, उसने जीवन और प्रकृति के प्रति मानव – दृष्टिकोण में एक बुनियादी परिवर्तन कर दिया है। प्रकृति के साथ व्यवहार करने का हमारा जो रिश्ता था वह बिल्कुल बदल गया है। अब प्रकृति मानव – समाज के लिए मात्र संसाधन बन कर रह गई है, और मानव उस संसाधन का स्वामी बन गया है। परंतु जितना अधिक औधोगिकरण हुआ है।

प्रदूषण आज की सबसे विकट मानवीय समस्या बन गई है। जिससे संपूर्ण मानव जाति के अस्तित्व पर एक प्रश्न चिन्ह लगा दिया है। आज हम जिस तकनीकी  मंडल (टेक्नोस्फीयर) में सांस ले रहे हैं, उसमें कितने दिन जीवित रह सकेंगे, कुछ नहीं कहा जा सकता है।

 इस समस्या के समाधान के लिए हमें अपने अतीत और वर्तमान तथा पूर्व और पश्चिम के बीच सम्मन्वय स्थापित करना होगा। आज की हमारी भोगवादी सभ्यता ने मानव – जाति को तीन तोहफे दिए हैं युद्ध,प्रदूषण और भूखमरी। इनमें से प्रदूषण को पहला स्थान दिया जा सकता है क्योंकि प्रदूषण की समस्या गरीब और अमीर दोनों देशों में समान रूप से है। इसका जन्म विपुलता वाले विकास की कोख से हुआ है और इसकी शुरुआत मानव की भोगविप्सा वासना को भड़का कर होती है। इन बढ़ते प्रदूषण के कारण कई आंतरिक क्रियाओं में गड़बड़ी पैदा हो गई है। जमीन के तेजाबीकरण के कारण धीरे – धीरे परिवर्तन आ रहे हैं। इनका वन और इस धरती पर सब प्रकार के जीवन पर प्रभाव पड़ रहा है। वनों के लिए पैदा हुए खतरों को वैकल्पित पद्धतियां अपना कर नहीं टाला जा सकता है। एक ओर पानी कम  हो गया है और दूसरी तरफ पानी की आवश्यकता बढ़ गई है।

विकास का दूसरा मानदण्ड है – अधिकाधिक उर्जा का उपयोग। वास्तव में आधुनिक मनुष्य के जीवन में एक क्षण ऐसा नहीं है जब बिना उर्जा के काम चलता हो। घर में, रसोई बनाने से लेकर दफ्तर के काम में उर्जा की आवश्यकता पड़ती है। इस बिजली और आणविक शक्ति से। धरती के अंदर जो छिपे हुए जीव – शेष इंधन हैं, चाहे वह कोयले के रूप में हैं, चाहे वह आणविक शक्ति के रूप में है, चाहे वह पेट्रोल के रूप में हैं, जब हम इसका विस्फोटन करते हैं, तो उसी से ये सारा प्रदूषण पैदा होता है। जिसके कारण जीव – जन्तु बहुत तेजी से विलुप्त हो रहे हैं। अब प्रकृति मानव के लिए एक संसाधन मात्र रह गई है और वह उस संसाधन का स्वामी बन गया है। इसके अलावा अब वह अपने को अन्य जीव जन्तुओं से बड़ा मानने लगा है, क्योंकि प्रकृति पर काबू पाने की शक्ति और साधन उसके अलावा किसी दूसरे के पास नहीं है। लोगों ने विपुलता को विकास का मानदण्ड माना है। जिस समाज के पास भोग की जितनी अधिक वस्तुएं होंगी वह उतना ही अधिक विकसित माना जाएगा। किन्तु ये भोग की वस्तुएं आखिर आएंगी कहां से? इन सबका भण्डार तो पृथ्वी ही है, चाहे ये अनधिकृत साधन धातु, खनिज, तेल हो और चाहे चारागाह, वन, कृषि – भूमि व समुद्र जैसे नवीकृत होने वाले साधन हो विपुलता वाले विकास के लिए मनुष्य ने तकनीकी की मदद से प्रकृति के भण्डारों का असीमित दोहन किया है। यह तो अलीबाबा की तरह मनुष्य के हाथ में तकनीक की चाबी लग गई है और प्रगति की जो सदियों की जमा पूंजी थी, उस चाबी से एकाएक हम समृद्ध हो गए, सम्पन्न हो गए। यह सम्पन्नता स्वाभाविक नहीं है। यह तो एकाएक आई है। और दूसरी बात यह है कि विकास के नाम पर भी धनी और गरीब देशों में समान रूप से आज यह लूट जारी है, और इसका हिस्सा बांटने में अमीर देश बाजी मार रहे हैं।

हवा और पानी प्राणी मात्र के लिए प्रकृति की दो अमूल्य देन है। इन्हीं पर सारा जीवन निर्भर है। लेकिन कई प्रकार के रसायनों के उपयोग से जीव – शेष से ईंधनों के जलने से हवा में कार्बन डाइआक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड, सल्फा ऑक्साइड जैसी गैसें मिल गई है। हम लोग आमतौर पर इस गलतफहमी में रहते हैं कि जो जहरीली गैस आ रही है, इनका प्रभाव कम करने के तकनीकी उपाय है। लेकिन इनका प्रभाव कम करने के लिए जो तकनीकी उपाय है, वे बहुत खर्चीले हैं और शत  – प्रतिशत सफल नहीं हुए हैं। अगर हम प्रकृति से छेड़ – छाड़ करते हैं तो हम ही अपने विनाश का कारण बनेंगे। इसलिए हमें प्राकृतिक संसाधनों और तौर – तरीकों का भी संरक्षण करना होगा। विकास सामूहिक  संस्कृति का संतुलन है। और यह उतना ही सच है जितना की जीवन और मृत्यु। आज जिस प्रकार प्राकृति संसाधन के दोहन के लिए कार्पोरेट जगत को प्रोत्साहित किया जा रहा है वह राष्ट्र के लिए सुखद नहीं है। प्राकृतिक संसाधन पर अंधाधुध प्रहार विकास नहीं हैं विनाश को आमंत्रित करने के सामान है। कार्पोरेट जगत को जनता लूट का माध्यम समझती हैं। आज जिस प्रकार प्राकृति संसाधनों का दोहन हो रहा है उससे लोगों में जबरदस्त रोष व्याप्त है।

विकास योजनाओं से पीड़ित समुदाय ने नाम पर यह विनाश  के अलावा और कुछ नहीं है। हम सब लोग जानते हैं और हमने यह पहले से ही सुना है कि रोटी, कपड़ा और मकान – सबको चाहिए एक समान इस तरह के नारे वर्षों तक हम बुलन्द करते रहे थे। यही बुनियादी आवश्यकताएं मानी जाती हैं। लेकिन अब पहली बुनियादी आवश्यकता शुद्ध प्राण -वायु मिलना सबसे मुश्किल हो गया है। आजका केन्द्रिय उत्पादन का जो युग है कि सहायता से ये चीजे उपलब्ध हो सके, हास्यास्पद माना जाएगा। इसलिए हमें उन साधनों का प्रयोग अधिक करना चाहिए जो नवीकृत साधनों के ऊपर आधारित हो और इन नवीकृत साधनों का हम अधिक से – अधिक उपयोग करे।

नवीकृत साधन कहाँ – कहाँ से मिलते हैं। अत्यधिक दोहन के कारण हम कृत्रिम साधनों का उपयोग करके इनकों स्वाभाविक वार्षिक क्षमता से कुछ और ज्यादा – ज्यादा ले तो रहे हैं, लेकिन वास्तव में अपनी पूंजी में से कम कर रहे हैं। और जिसे हम आज लाभ के रूप में देख रहे हैं वह पूजीं घटती जा रही है। तो अब हमको एक ऐसी जीवन – शैली अपनानी है, जिससे कि बुनियादी पूंजी भी बढ़ती रहे और साथ – साथ हमारा जीवन निर्वाह भी होता रहे। आज मानव यह भूल ही गया है कि प्रकृति क्या होती है कहने को तो लोग भगवान की पूजा करते है जिसे किसी ने कभी देखा ही नहीं है और दूसरी तरफ है प्रकृति जिसके बिच रहकर मानव उसी को नष्ट करने में लगा हुआ है। अगर हम प्रकृति की बात करे तो हमारी प्रकृति ही हमारा भगवान है दोनों एक ही हैं भ- भूमि, ग- गगन, वा- वायु, न- नीर ये ही प्रकृति हमारा भगवान है इसलिए हमें यह समझना होगा कि इसी की सुरक्षा और पूजा हमारे जीवन का आधार है।