प्राण को दादा साहेब फाल्के अवार्ड का सम्मान

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Pranमशहूर ऐक्टर प्राण को अपनी बेहतरीन अदायगी की छाप छोड़ने और भारतीय सिनेमा में उनकी बेहतरीन कलाकारी के लिए सबसे बड़े सम्मान दादा साहेब फाल्के अवॉर्ड से नवाजा जाएगा। भारतीय सिनेमा का सर्वोच्च सम्मान दादा साहेब फाल्के अवार्ड देने की घोषणा कर दी गई है। वर्ष 2004 से हर साल फाल्के अवार्ड की घोषणा के वक्त उनके नाम की चर्चा होती रही, लेकिन साल-दर-साल अन्य दिग्गज सम्मानित होते रहे और प्राण के प्रशंसक मायूस होते रहे। इस तरह दरकिनार किए जाने पर प्राण ने कभी नाखुशी जाहिर नहीं की, लेकिन पूरी फिल्म इंडस्ट्री महसूस करती रही कि उन्हें पुरस्कार मिलने में देर हो रही है। लेकिन देर सवेर ही सही प्राण को यह अवार्ड आगामी तीन मई को भारतीय सिनेमा के सौ साल पूरे होने के बवसर पर प्रदान किया जाएगा। अपने छह दशक के करियर में 400 से ज्यादा फिल्मों में काम करने वाले प्राण ने 1998 में सिनेमा से सन्यास ले लिया था।

उन्होंने नब्बे के दशक के आखिर में उम्र संबंधी बीमारियों के कारण

 

फिल्मों में काम करना बंद कर दिया था। पुरानी दिल्ली के बल्लीमारान में 12 फरवरी 1920 को जन्मे प्राण ने अपने अभिनय करियर की शुरुआत 1942 में दलसुख पंचोली की फिल्म ‘खानदान’ से की। उन्होंने 40 के दशक में यमला जट, खजांची, कैसे कहूं और खामोश निगाहें जैसी फिल्मों में काम किया।

 

उनके बेटे ने यह भी बताया कि प्राण का पुरस्कार लेने दिल्ली जाना संभव नहीं है। उन्होंने कहा, ‘वह 93 साल के हैं और हाल ही में अस्पताल से उन्हें छुट्टी मिली है। मुझे नहीं लगता कि वह पुरस्कार लेने जा सकेंगे।’ एडीट्यूड और स्आइल प्राण में शुरू से ही था। लाहौर में राम लुभाया की पान की दुकान के सामने पान मुंह में डालने और चबाने के उनके अंदाज से वली मुहम्मद वली प्रभावित हुए। उन्हें प्राण में अपना खलनायक दिख गया। उन्होंने ज्यादा बातचीत नहीं की। बस अपनी लिखी पंजाबी फिल्म ’यमला जट’ के लिए उन्हें राजी कर लिया। प्राण ने फिर पलट कर नहीं देखा। अपनी तीसरी फिल्म ’खानदान’ में प्राण को नूरजहां के साथ नायक की भूमिका मिली। लेकिन, जब प्राण ने फिल्म देखी तो उन्होंने खुद को रिजेक्ट कर दिया। उन्होंने महसूस किया कि हीरो की भूमिका में वे जंच नहीं रहे। उन्होंने अपनी जीवनी और इंटरव्यू में भी हमेशा जिक्र किया है कि उन्हें गीत गाने और हीरोइन के पीछे भागने में दिक्कत हुई थी। हीरो की एक्टिंग के लिए जरूरी से दोनों बातें उन्हें खुद पर नहीं फबी।

उन्होंने 1945 और 46 में लाहौर में करीब 22 फिल्मों में काम किया, लेकिन 1947 में विभाजन के कारण उनका करियर ठहर गया। इसके बाद उन्होंने 1948 में देव आनंद और कामिनी कौशल की ‘जिद्दी’ के साथ बॉलिवुड में अपने करियर की शुरुआत की। भारत विभाजन के पहले प्राण लाहौर में 20 से अधिक फिल्में कर चुके थे। आजादी के एक साल पहले से माहौल बदत्तर हो रहा था। तबाही का अनुमान कर उन्होंने अपनी पत्नी और बेटे को इंदौर भेज दिया था। पत्नी की जिद पर बेटे के पहले जन्मदिन में शामिल होने के लिए प्राण 10 अगस्त, 1947 को इंदौर पहुंचे और फिर कभी लाहौर नहीं लौट सके। रिश्तेदारों से कुछ उधार लेकर वे मुंबई आए। यहां आठ महीने के इंतजार के बाद सआदत हसन मंटो, श्याम और कुक्कू की सिफारिश से उन्हें बांबे टाकीज़ की फिल्म मिली। पारिश्रमिक 500 रूपये तय हुआ। भारम में उनकी पहली फिल्म देवाआनंद के साथ ’जिद्दी’ थी। तब से 1998 तक वह विभिन्न भूमिकाओं में फिल्मों में दिखते रहे। प्राण ने अपने दौर के लगभग सभी नायकों के साथ खलनायक की भूमिका निभाई।

दिलीप कुमार, देव आनंद और राज कपूर की 50 और 60 के दशक की फिल्मों में प्राण खलनायक के रूप में नजर आने लगे। दिलीप कुमार की ’राम और श्याम’ के गजेन्द्र को यादगार आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं। हर फिल्म में उन्होंने खलनायकी का एक नया रंग भरा। शब्दों को चबाकर बोलने से वे खतरनाक और दुष्ट लगते थे। लेकिन जब मनोज कुमार ने ’उपकार’ में उन्हें मस्त मौला मलंग की भूमिका दी तो उन्होंने अपनी ही छवि बदल दी। पहली बार निर्माता-निर्देशकों को लगा कि वे सहयोगी और चरित्र भूमिकाएं भी निभा सकते हैं। अमिताभ बच्चन की ’जंजीर’ में उन्होंने शेर खान की यादगार भूमिका की। अतिताभ के ही शब्दों में प्राण ने हिन्दी सिनेमा को अपनी कलाकारी से प्राण दिया। एक दौर ऐसा भी था जब प्राण को फिल्म के हीरो से अधिक पैसा मिलने लगा था। सत्तर के दशक में प्राण ने खलनायक की बजाय अधिक चरित्र भूमिकाएं कीं। उन्हें 2000 में स्टारडस्ट ने श्विलन ऑफ द मिलेनियमश् चुना। उन्हें 2001 में भारत सरकार ने पद्मभूषण सम्मान से नवाजा।