सदियों से पलायन का दंश झेल रहा बिहार, फिर भी लोग कहते हैं- ‘बिहार में बहार है’

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इंसान जब पैदा होता है तो उसके पास केवल पेट और मुंह नहीं बल्कि उसके पास दो हाथ भी होता है। अगर उसके हाथ को सम्मानित काम मिले तो ही देश प्रगति कर सकता है वरना सारी बातें केवल बातें हैं। इसी काम की तलाश में बिहारियों और उत्तर भारतीयों का पलायन एक ऐतिहासिक घटना है। पलायन के पीछे रोज़ी-रोटी की तलाश मुख्य कारण है क्योंकि बिहार में रोज़गार का मामला फिसड्डी ही है। सामंती प्रथा जब थी जब वो लोग किसी प्रकार नारकीय ज़िन्दगी जीते हुए और बनिहारी और बंधुआ मजदूरी करते हुए अपना पेट किसी तरह पाल लेते थे लेकिन बाद में इन लोगों पर राजनीति तो बहुत हुई किंतु इनकी मूलभूत ज़रूरतों अर्थात रोटी, कपड़ा और मकान पर व्यवहारिक कार्य लगभग नहीं के बराबर हुआ। जो थोड़ा बहुत हुआ भी वो काफी नहीं है।

वर्तमान में “बिहार में बहार का” जुमला तो है लेकिन उद्योग-धंधे और खेती, शिक्षा, रोज़गार सब लगभग चौपट ही है। फिर कानून-व्यस्था और सुरक्षा का भी मामला है। सामंती दासता से मुक्ति भी एक मुख्य कारण है। तो बहार है तो किसकी और कहां है? हां, सांस्कृतिक शून्यता के बीच जातिवाद की बहार है, सामंती मानसिकता की बहार है, ब्राह्मणवाद की बहार है, पुरुषवाद की बाहर है, गुंडाई, लंठई और भ्रष्टाचार आदि की बहार है।

बिहार के चर्चित नाटककार भिखारी ठाकुर भी अपने कई नाटकों में पलायन का ज़िक्र करते हैं लेकिन उसके कारणों की पड़ताल में बस इतना ही इशारा करते हैं कि नगदा नगदी दाम कमाने जा रहे हैं। उनके दो नाटक बिदेसिया और गबरघिचोर के मुख्य में पलायन भी है। बिदेसिया का नायक बिदेसी आख़िरकार लौटकर गांव आ जाता है लेकिन गबरघिचोर का एक किरदार भी वापस नहीं लौटता बल्कि अपने बेटा को बाहर ले जाने के लिए वापस आता है। बिहारी लोग पहले पूरब देस (असम, बंगाल) जाते थे अब कहीं भी चले जाते हैं, जहां उनके दो हाथों को काम मील सके।

अपना देस, बोली बानी छोड़कर कोई कहीं नहीं जाना चाहता, यह बात बिल्कुल सत्य है; लेकिन जब किसी भी प्रकार से पेट ना पालन और शोषण मुक्त जीवन जीना तक दूभर हो जाए और तमाम तरह का शोषण झेलना पड़े तब व्यक्ति मजबूरन पलायन ही करता है। लेकिन फिर भी कहीं ना कहीं एक तार तो जुड़ा ही रहता है अपने देस से जैसे जहाज का पंछी उड़ता है और पुनः कभी ना कभी वापस जहाज पर ही लौटता है। शायद इसी वजह से पर्व और त्येवहारों पर इनका बार बार वापस लौटना होता है और जब कमाकर कुछ बचाया हुआ ख़त्म हो जाता है तो पुनः ये सबलोग पलायन की राह ही पकड़ते हैं क्योंकि इनके नेताओं ने वोट झटकने के लिए इनसे वादे तो खूब फेंके लेकिन किया वही ढाक के तीन पात। आज बिहार में लगभग हर जाति की अपनी एक अलग अघोषित पार्टी है लेकिन वहां भी कुछ शीर्षस्थ लोगों के अलावा शायद की किसी अन्य का विकास हुआ हो। फ्री का वाईफाई, कुछ सड़क, कुछ पुल और बिजली-पानी आदि से पेट नहीं भरता और पैसा व रोटी कमाने का कोई ख़ास इंतज़ाम हुआ नहीं। ऐसी स्थिति में आसरा ही क्या बचता है?

अपने देस से कटकर पलायित लोग दूसरे प्रदेश में हाड़ तोड़ मेहनत, मजूरी करके किसी भी प्रकार अपना और अपने परिवार का पेट पालते हैं। वहां भी उनकी ज़िंदगी कोई सुकून भरी तो होती नहीं है बल्कि उनका प्रचंड शोषण ही होता है – शारीरिक और मानसिक दोनों तरह से। इनसे कम से कम मजूरी में ज़्यादा से ज़्यादा काम लिया जाता है। सब प्राइवेट और खुदरा सेक्टर में लगे होते हैं और कुछ किसी मालिक का रिक्शा, ठेला, ऑटो आदि चलकर गुजारा करते हैं, तो कुछ अन्य खुदरा कारोबार में हाथ बटाते हैं। अब इन सेक्टरों में 8 घंटे काम करने का ना कोई नियम काम करता है और ना ही संविधान ही। यह बात सब जानते हैं लेकिन करता कोई कुछ नहीं है। ना कहीं विरोध है और ना प्रतिरोध, जैसे सबने इस शोषण को मौन स्वीकृति दे रखी हो – सरकार, व्यवस्था सबने और जहां तक सवाल इन मजदूरों का है तो ये मजदूर मजबूर होते हैं इसलिए हर परिस्थिति से ज़्यादा से ज़्यादा मेहनत करने को तैयार भी रहते हैं। वैसे भी एक के बदले तुरंत दूसरे का उपलब्ध हो जाना इन्हें चुप रहने को मजबूर भी करता है।

इनकी हालात एक तरह से ग़ुलाम वाली ही है इसी वजह से इन्हें काम देनेवाला व्यक्ति स्थानीय मजदूरों से ज़्यादा तहजीब देता है। क्योंकि स्थानीय लोग उतनी सहजता से किसी ग़ुलाम की तरह कम ख़र्च में ज़्यादा से ज़्यादा काम करने को तैयार ही नहीं होगें। जहां तक सवाल किसी भी प्रकार की सुविधा का है तो वो तो किस चिड़िया का नाम है वो कोई नहीं जानता। इन प्रवासियों के ठिकानों पर जाकर देखिए तब शायद अंदाज़ हो कि ये कैसी नारकीय स्थिति में रहते और जीते हैं और इनके बच्चे होश संभालने से पहले ही किसी मालिक के ग़ुलाम बनने को मजबूर होते हैं। सनद रहे कि प्रवासी लोग ऐसा मजबूरी में करते हैं, ना कि उनका कोई व्यक्तिगत इच्छा होती है। इस वजह से यह संभव है कि स्थानीय मजदूरों को इनके मुक़ाबले काम ना मिले जबकि प्रवासी मजदूर वहीं काम पर रख लिया जाय। इस बात को ऐसे समझिए, मान लीजिए कि आपको अपने घर के काम के लिए कोई मजदूर चाहिए। एक कम पैसे में ज़्यादा काम करने को चुपचाप मान लेता है और दूसरा एक सीमित अवधि तक ही काम करेगा तो आप अपने काम के लिए किसे रखना ज़्यादा पसंद करेगें?

तो क्या इन प्रवासियों की वजह से स्थानीय लोगों को काम नहीं मिलता? व्यवहारिक रूप से यह बात एकदम सही होता है लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि इसका पूरा ठीकरा इन प्रवासी मजदूरों पर फोड़ा जाय। ये तो अपनी मेहनत-मजूरी पर जीते हैं। वो मालिक लोग हैं जो कम पैसे में ज़्यादा से ज़्यादा काम लेने के फिराक में स्थानीय लोगों को काम नहीं देते और फिर नोटबन्दी की मार भी पड़ी है व्यवसाय के ऊपर। तो यह निश्चित ही है कि स्थानीय लोगों में बेरोज़गारी बढ़ी है; लेकिन गांव के साहूकार और उसके साथ काम करनेवालों को सबसे बड़ा दुश्मन मान लेना मूर्खता है। वो शोषण के चक्की का सबसे छोटा और कमज़ोर पहिया होता है। प्रवासी मजदूरों को डरा-धमकाकर भगा देने से हो सकता है कि किसी एक राज्य में स्थानीय लोगों को रोजगार मिल भी जाए लेकिन आदि हम एक देश के हिसाब से सोचें (जो कि सोचना ही चाहिए) तो गरीबी और बेरोज़गारी में बढ़ोतरी ही होगी और जब बेरीज़गारों की पूरी फौज भुखमरी का शिकार होगी तब वो किसी का कोई तर्क नहीं सुनेगी।

आज हमारे राष्ट्रीय नेता तक बड़ी ही बेशर्मी से यह बात खुलेआम कह रहे हैं कि हमने चुनाव में बड़े बड़े वादे कर दिए थे क्योंकि हमें खुद इस बात का यकीन नहीं था कि हम सत्ता में आएगें। हमें क्या पता था कि जनता हमारे झूठ को सच मानकर प्रचंड बहुमत देगी। ऐसा बोलकर वो हंसते भी हैं। तो ऐसे लोगों के बड़बोलेपन पर यक़ीन मत कीजिए जिन्हें खुद अपने बोले पर यक़ीन नहीं है। समझदार बनिए, परखिए, तत्पश्चात चयन कीजिए क्योंकि जबतक हम जाति, धर्म, समुदाय, सम्प्रदाय, दारू, मुर्गा, मोबाइल, साइकल, लेपटॉप, मोटरसाइकल और पैसा के लोभ में या उनकी चिकनी-चुपड़ी बातों को सुनकर या किसी भय या भक्ति या अपना कोई निजी नफा-नुकसान के पर देश का नेता चुनेगें तब तक स्थिति में कोई ख़ास सुधार नहीं होनेवाला। जांचिए, परखिए, मंथन और वैज्ञानिक चिंतन कीजिए बुद्धि और विवेक का इस्तेमाल करते हुए और सवाल करने की हिम्मत रखिए। यह किसी भी लोकतंत्र के लिए अतिआवश्यक है वरना जो है वो तो है ही।