आमतौर पर लगभग 140 तरीकों से दलितों पर की जाती है हिंसा

न्याय व्यवस्था और सरकारी तंत्र से जुड़े लोग दलित महिलाओं पर हो रहे अत्याचारों के प्रति संवेदनशील बने। समाज के हर वर्ग और जाति के लोगों को अपने परंपरागत सोच के दायरे से बाहर निकलकर दलित महिलाओं को समाज के हर वर्ग और जाति के लोगों को अपने में व्याप्त परंपरागत कुरीतियों को तोड़ने के सतत् प्रयास करने होंगे। साथ ही जब दलित महिलाएं शिकायत लेकर आये जिनमें आगे चलकर बड़ी घटना होने संभावना हो उसी वक्त उस शिकायत को गंभीरता से लिया जाए।
       

पटना। भारत युगों से अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लोग जातिगत हिंसा, आर्थिक  शोषण, अत्याचार, अपमान, साधनहीनता,भूख, गरीबी और यातनाओं के शिकार होते रहे हैं और अगर बिहार की बात करें तो यहां की सामाजिक व्यवस्था ऐतिहासिक रूप से जाति और वर्ग के आधार पर विखंडित रही है, जिसका असर मूलरूप से दलित और महादलित समुदायों पर पड़ा है। उच्च वर्ग और समर्थ लोगों के अत्याचार और भेदभाव पूर्ण व्यवहार के कारण दलित वर्ग हमेशा शोषित और साधना विहीन रहा है।

वैसे तो इस शोषण का असर पुरूष और महिला दोनों पर पड़ा है, परन्तु दलित महिलाएं कई प्रकार से प्रभावित हुई हैं। एक तरफ वे दलित होने के कारण पितृसतात्मक व्यवस्था से संघर्ष कर रही हैं तो दूसरी ओर असंवेदनशील न्याय व्यवस्था इन्हें सहयोग नहीं देती है। आमतौर पर लगभग 140 तरीकों से दलितों पर हिंसा की जाती हैं। दलित महिलाएं शोषित, गरीब और कमजोर वर्ग से हैं और उनमें प्रतिकार की क्षमता कमतर समझी जाती है, इसलिए उनके प्रति हिंसा भी बेधड़क की जाती है।

पितृसतात्मक समाज में महिलाओं को दोयम दर्जा प्राप्त है, पितृसता हर जाति और वर्ग में महिलाओं की सामाजिक –स्थिति को कमजोर बनाये रखने में अहम् भूमिका निभाता रहा है। परम्परागत व्यहारों और लिंग आधारित भेदभाव के माèयम से महिलाएं हमेशा से हाशिए पर रही है। जहां तक दलित महिलाओं का सवाल है, तो एक महिला, गरीब एवम् दलित होने के नाते उनकी स्थिति और भी नाजुक होती है।

सरकारी आंकड़ो के अनुसार बिहार में सन् 2012 में कुल 4950 घटनाएं अनुसूचित जाति एवं जनजाति ¼अत्याचार निवारण½ अधिनियम 1989 के तहत दर्ज की गयी, जिससे से 191 केवल दलित महिलाओं पर हुए बलात्कार की घटनाएं थीं। इसके अलावा भी कई और प्रताड़नाएँ जैसे घरेलू हिंसा, दहेज प्रताड़ना, राजनीतिक हिंसा और डायन का इल्जाम लगाकर प्रताडि़त करना जैसी अनगिनत घटनाएं इनके जीवन का हिस्सा हैं। लेकिन इन घटनाओं के सही-सही आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं, क्योंकि केवल एक तिहाई से भी कम महिलाएं शिकायत निवारण प्रणाली तक पहुंच पाती हैं।

समाधान हेतु सवैधानिक एवं व्यवस्थागत कवायदें

भारत के सविधान के अनुच्छेद 17 द्वारा अस्पृश्यता का अंत किया गया तथा अनुच्छेद 366,341 व 342 में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को परिभाषित कर व्याख्या की गयी। इस वर्ग को शोषण और अत्याचार से मुä कराने के उद्देश्यसे सन् 1989 में संसद द्वारा अनुसूचित जाति एवं जनजाति ¼अत्याचार निवारण½ अधिनियम 1989 पारित किया गया। इस कानून के अंतर्गत विशिष्ट न्यायालयों का गठन करने का प्रावधान किया गया।

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कानून बनने के लगभग दो दशक बाद,हाल ही में बिहार के 5 जिलों ¼पटना, मुज्ज़फरपुर,  गया, भागलपुर एवं बेगूसराय½ में दलितों के लिए विशिष्ट न्यायालयों की स्थापना की गयी है। इसके अतिरिक्त, दलित उत्पीड़न के दर्ज केसों के त्वरित निराकरण के लिए बिहार में सर्वाधिक ¼184½ फास्ट ट्रेक न्यायालयों का गठन किया गया।

बावजूद इसके,  लगभग 80 हजार केस आज भी विशाराधीन हैं। अत: इस तरह के न्यायिक ढांचे ज्वलंत समस्याओं के लिए अल्पकालीन निवावरण मात्र हैं और इन ढांचों में दलित महिलाओं के समुचित सहभागिता के लिए कोई उचित स्थान नहीं बनाया गया है।

घरेलू हिंसा से महिलाओं की सुरक्षा के लिए कई वर्षों के अथक çयास के बाद सन् 2005 में घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम ¼पीडब्ल्यूडीवीए½ पारित किया गया। हालांकि इस विधयेक को लागू करने के लिए व्यापक नियम बनाये गये परन्तु इन नियमों का पालन बिहार में केवल महिला हेल्प लाइन के माध्यम से किया जा रहा है। इस कानून के प्रचार-प्रसार तथा ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं तक पहुंच बनाने की कोशिश न के बराबर की गयी है।

ग्रामीण स्तर पर ज्यादातर घरेलू हिंसा के मामले में पंचायती राज व्यवस्था के तहत बने ग्राम कचहरी में दर्ज किये जाते हैं। एक तरफ जहां महिलाओं के çति हिंसा में बढ़ोतरी हुई है वहीं दूसरी तरफ दलित महिलाओं को सशक्त बनाने का çयास भी किये गये हैं। इलित महिलाओं की दशा में सुधार लाने तथा उन्हें सम्मानित जीवन çदान करने के लिए हमें बहुआयामी कदम उठाने होंगे। यह जरूरी है कि आम जनता तथा न्याय व्यवस्था और सरकारी तंत्र से जुड़े लोग दलित महिलाओं पर हो रहे अत्याचारों के çति संवेदनशील बने।

समाज के हर वर्ग और जाति के लोगों को अपने परंपरागत सोच के दायरे से बाहर निकलकर दलित महिलाओं को समाज के हर वर्ग और जाति के लोगों को अपने में व्याप्त परंपरागत कुरीतियों को तोड़ने के सतत् çयास करने होंगे। साथ ही जब दलित महिलाएं शिकायत लेकर आये जिनमें आगे चलकर बड़ी घटना होने संभावना हो उसी वक्त उस शिकायत को गंभीरता से लिया जाए।

इसके अतिरिक्त दलित महिला के केसों की त्वरित सुनवाई के  लिए अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति एवं अल्पसंख्यक थाना के अन्तर्गत अलग से सेल बनाए जाएं जहां महिला पदाधिकारी नियुक्त हो साथ ही पीडि़ता के उचित पुनर्वास की व्यवस्था की जाए।

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