भारत ,अमेरिका बनाम पाकिस्तान,चीन

Washington: Prime Minister Narendra Modi talks to President Barack Obama at the Martin Luther King Jr. Memorial in Washington on Tuesday. PTI Photo by Vijay Verma(PTI10_1_2014_000011A)

तालियों की गूंज के बीच प्रधानमंत्री मोदी ने एसे वक्त अमेरिका के चुने हुये प्रतिनिधियों और सिनेटरो को संबोधित किया जब अमेरिका खुद अपने नये राष्ट्रपति की खोज में है । लेकिन प्रधानमंत्री मोदी ने अपने भाषण में जिस तरह दुनिया के सबसे पुराने और सबसे बडे लोकतांत्रिक देश के बीच बनते बढते प्रगाड होते संबंधो का जिक्र किया उसने इसके संकेत तो दे दिये कि भारत अमेरिका की दोस्ती एतिहासिक मोड़ पर है । लेकिन समझना यह भी होगा कि अमेरिकी काग्रेस को दर्जनों देशो के 117 प्रमुख संबोधित कर चुके हैं। मोदी 118 वें है और इस फेहरिस्त में ब्रिटेन से लेकर जर्मनी, जापान से लेकर फ्रांस, और पाकिस्तान से लेकर इजरायल के राष्ट्राध्यक्ष तक शामिल हैं । लेकिन अमेरिकी काग्रेस को कभी चीन के किसी राष्ट्राध्यक्ष ने संबोधित नहीं किया। यानी जिस तरह अमेरिकी काग्रेस के स्पीकर की तरफ से प्रदानमंत्री मोदी को संबोधित करने का निमंत्रण मिला उस तरह बीते 70 बरस में कभी चीन को अमेरिका की तरफ से निमंत्रण नहीं भेजा गया । यानी 1945 में अमेरिकी काग्रेस को संबोधित करने की जो परंपरा चर्चिल के भाषण के साथ शुरु हुई उस कड़ी में कभी चीन के किसी राष्ट्राध्यक्ष को अमेरिका ने नहीं बुलाया। तो अंतराष्ट्रीय मंच पर अमेरिका और चीन के बीच दूरियां थीं । दोनो के बीच टकराव है।और अमेरिका के लिये भारत से निकटता उसकी जरुरत है । क्योकि एशिया में भारत के जरीये ही अमेरिका चीन के विस्तार को रोक सकता है ।
दूसरी तरफ चीन किसी भी तरह भारत को रोकने के लिये पाकिस्तान को हर मदद देगा । तो यह सवाल हर जहन में उठ सकता है भारत के जरिये अमेरिका और पाकिस्तान के जरीये चीन अपनी कूटनीति बिसात तो नहीं बिछा रहा है। क्योंकि आतंकवाद के मुद्दों पर भारत के लिये पाकिस्तान सबसे बड़ी मुश्किल है । लेकिन एक वक्त अमेरिका के संबंध पाकिस्तान के साथ अच्छे रहे तो नेहरु या इंदिरा गांधी को अमेरिका ने कांग्रेस को संबोधित करने का निमंत्रण नहीं भेजा बल्कि अमेरिकी कांग्रेस में पाकिस्तान के अय्यूब खान 1961 में ही संबोधित कर आये । लेकिन अफगानिस्तान में जब रुसी सैना हारी और 9/11 की घटना हुई तो भारत पाकिस्तान के बीच बैलेंस बनाने में ही अमेरिका लगा रहा ।

1985 में पहली बार भारत के पीएम राजीव गांधी को अमेरिकी कांग्रेस में संबोधन के लिये निमंत्रण दिया गया तो 1989 में बेनजीर भुट्टो को अमेरिकी कांग्रेस में संबोधित करने का निमंत्रण मिला। जबकि भारत में आतंक की घुसपैठ बेनजीर के दौर से शुरु हुई । लेकिन मौजूदा वक्त में अमेरिका के लिये रणनीतिक तौर पर भारत सबसे अनुकूल है । और भारत के सामने भी चीन या पाकिस्तान को रोकने के लिये अमेरिका के साथ की जरुरत है तो अमेरिका के साथ सैन्य तंत्र के इस्तेमाल को लेकर लॉजिस्टिक्स एक्सचेंज मेमोरैंडम ऑफ़ ऐग्रीमेंट के नाम पर ऐसा समझौता हो रहा है जिसके तहत अमरीकी फ़ौजी विमान भारत और भारत के सैन्य अड्डों पर ईंधन या मरम्मत के लिए उतर सकते हैं । यानी भारत के गुटनिरपेक्ष इतिहास को देखते हुए ये एक बहुत बड़ा क़दम है और भारतीय अधिकारी इस पर बेहद संभलकर बयान दे रहे हैं लेकिन जानकारों के अनुसार दोनों देशों के बीच बढ़ते सैन्य रिश्तों के लिए ये एक ऐतिहासिक समझौता होगा. तो दूसरी तरफ जो सवाल भारत में न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप की सदस्यता को लेकर उठ रहे है उसका एक सच तो यह भी है कि एनएसजी की सदस्यता से बारत को लाभ यही होगा कि वह अन्य सदस्य देशों के साथ मिलकर परमाणु मसलों पर नियम बना सकेगा ।

तो ये एक स्टेटस और प्रतिष्ठा की बात है ना कि इसकी कोई ज़रूरत है क्योंकि भारत को साल 2008 में ही परमाणु पदार्थों के आयात के लिए सहूलियत मिली हुई है । लेकिन साथ ही अगर भारत को एनएसजी की सदस्यता मिल जाती है तो सबसे बड़ा फ़ायदा उसे ये होगा कि उसका रूतबा बढ़ जाएगा । क्योकि याद किजिये न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप वर्ष 1974 में भारत के परमाणु परीक्षण के अगले ही साल 1975 में बना था. यानी जिस क्लब की शुरुआत भारत का विरोध करने के लिए हुई थी, अगर भारत उसका मेंबर बन जाता है तो ये उसके लिए एक बड़ी उपलब्धि होगी । लेकिन इसके आगे का सवाल बारत के लिये महत्वपूर्ण है कि ओबामा के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति हिलेरी हो या ट्रंप , क्या उनसे भी बारत की निकटकता बरकार रहेगी ।

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क्योकि ओबामा ने भारत को लेकर डेमोक्रिटेस की छवि भी बदल दी इससे इंकार किया नहीं जा सकता है । क्योकि अभी तक माना तो यही जाकता रहा कि डेमोक्रेट्स के मुकाबले रिपब्लिकन कम एंटी-इंडियन रहे हैं। तो क्या हेलेरी का आना भारत के लिये अच्छा होगा । या फिर ट्रंप । यह सवाल है , क्योकि हेलेरी पारंपरिक तौर पर कश्मीर को लेकर भारत के साथ खडी होगी . तो ट्रंप पाकिस्तानी जेहाद को निशाने पर लेने से नहीं चूकेंगे । यानी मौजूदा वक्त में चीन और पाकिस्तान जिस तरह भारत के रास्ते में खड़े हैं वैसे में पहली नजर में कह सकते है ट्रप का आना भारत के अनुकूल होगा । क्योंकि हिलेरी ट्रंप की तर्ज पर इस्लामिक देशो के खिलाफ हो नहीं सकतीं । क्योंकि क्लिंटन फाउंडेशन को तमाम इस्लामिक देशों से खासा फंड मिलता रहा है । लेकिन उसका अगला सवाल यह भी है कि ट्रंप जिस तरह अमेरिका में नौकरी कर रहे भारतीय नागरिकों के खिलाफ हैं, वह मोदी के लिये मुश्किल खड़ा कर सकता है । लेकिन दूसरी तरफ ट्रप ने जिस तरह भारत में रियल इस्टेट में इनवेंस्ट किया है तो ट्रंप का आना भारत में निवेश करने के अनुकूल माहौल बना सकता है । लेकिन महत्वपूर्ण सवाल तो ट्रंप के एच-1बी वीजा पर अंकुश लगाने की थ्योरी का है ।

इससे भारतीय आईटी इंडस्ट्री क ही नहीं बल्कि देश की अर्थव्यवस्था को भी झटका लग सकता है । क्योंकि भारत को इस वक्त विदेशों में काम करने वाले भारतीयों से करीब 71 बिलियन डॉलर हर साल मिलता है-जो देश की जीडीपी का करीब 4 फीसदी है। इनमें बड़ा हिस्सा आईटी इंडस्ट्री में काम करने वाले भारतीय भारत भेजते हैं। लेकिन ऐसा भी नहीं है ओबामा ने भारतीय आईटी सेक्टर को मदद ही की हो। -एच-1बी वीजा फीस को ओबामा के दौर में ही बढ़ायी गई यानी और हिलेरी इसे कम करेंगी-ऐसा नहीं लगता। लेकिन हिलरी क्लिंटन भारतीय अधिकारियों के लिए एक जाना पहचाना चेहरा है। आठ सालों तक वह अमेरिका की फर्स्ट लेडी रही हैं, उसके बाद आठ साल अमेरिकी सेनेटर रही हैं और चार साल से सेक्रटरी ऑफ स्टेट हैं। भारत को लेकर उनके विचार और व्यवहार अब तक दोस्ताना रहे हैं। लेकिन भारत को लेकर अमेरिका की जो एक निर्धारित पॉलिसी है, उसके दायरे में रहकर ही हिलरी काम करेंगी। जबकि ट्रंप की विदेश नीति में भारत के लिए खास जगह हो सकती है लेकिन सवाल यही है कि ट्रंप पर भरोसा कैसे किया जाए। क्योंकि एक तरफ वो मोदी की तारीफ करते नहीं थकते तो भारतीयों का मजाक उड़ाने में भी नहीं हिचकते। यानी ट्रंप या हिलेरी में जो भी राष्ट्रपति बने-भारत के लिए एकदम से हालात अच्छे नहीं होंगे । और ना ही ओबामा की तर्ज पर मोदी का याराना हेलेरी या ट्रंप से हो पायेगा । यानी ओबाना के बाद अंतर्ष्ट्रीय कूटनीति बदलगी इससे इंकार नहीं किया जा सकता ।

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