संकट में सियाचिन, बढ़ते ग्लोबल वार्मिंग से ग्लेशियर के रंग पड़ रहे हैं काले

दुनिया के सबसे ऊंचे रणक्षेत्र सियाचिन ग्लेशियर आज अपने ही अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है। ग्लोबल वार्मिंग की वजह से सियाचिन के ग्लेशियर काले पड़ते जा रहे हैं, इतना ही नहीं, ये ग्लेशियर लगातार पीछे भी खिसक रहे हैं। सियाचिन लगातार मानवीय दखल झेल रहा है जिसे वह बर्दाश्त नहीं कर पा रहा है। 1984 के बाद से यहां बर्फ टूटने का सिलसला और बर्फीले तूफान की घटनाएं तेजी से बढ़ी हैं। वैसे तो यह युद्धस्थल है लेकिन यहां सेनाओं की लड़ाई नहीं होती, बल्कि दोनों ही सेनाएं मौसम से लड़ती हैं। सियाचिन से निकलने वाली नुब्रा नदी का जलस्तर अचानक बढ़ गया है।

सियाचिन के मौसम और पर्यावरण पर नजर रखने वाले सेना के लोग भी ग्लोबल वार्मिंग के असर को साफ महसूस कर रहे हैं। ग्लेशियर में बर्फ का संतुलन बिगड़ रहा है और वहां मौसमी बदलाव का असर तेजी से देखा जा रहा है। सियाचिन बैटल स्कूल के कमांडेंट लेफ्टिनेंट कर्नल एस सेनगुप्ता ने बताया कि गर्मियों में अब सियाचिन बेस कैम्प का तापमान 28 डिग्री तक पहुंच रहा है। इसी साल 3 फरवरी को सियाचिन की सोनम पोस्ट पर एवलांच की वजह से सेना के 10 जवानों की मौत हो गई थी। इस बड़े हादसे से सबक लेते हुए सेना ने अपने जवानों की ट्रेनिंग में बदलाव किए जा रहे हैं। अगर कोई जवान बर्फ में दब जाय तो उसे ढूढने के लिए जेवियर रडार और दूसरे कई आधुनिक उपकरण खरीदे गए हैं।

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ग्लोबल वार्मिंग की वजह से ग्लेशियर में दरार

सियाचिन में हर 10 फीट पर ग्लेशियर में दरार नजर आने लगी है। सबसे ज्यादा चिंता वहां के हिम तालाबों की स्थिति पर है जो धीरे-धीरे फैलते जा रहे हैं और ग्लेशियर में जमा बर्फ की परत पतली होती जा रही हैं। सियाचिन में जवानों की सुरक्षा के लिए बर्फ काट कर बंकर बनाए गए हैं। सियाचिन में सिर्फ मिट्टी के तेल के स्टोव से खाना बनता है और जवान इससे आग तापते हैं। हर घंटे हेलीकॉप्टर की उड़ान होती है, जो वहां तक पहुंचने का एकमात्र साधन है। इससे रसद, दवाइयां और जरूरत के दूसरे सामानों की सप्लाई होती है और जवानों को ले जाया जाता है. ग्लेशियर में बर्फ का संतुलन बिगड़ रहा है और वहां मौसमी बदलाव का असर तेजी से देखा जा रहा है।

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