महिला मजदूरों की दयनीय स्थिति

महिला मजदूर समकालीन व्यवस्था में सबसे शोषित मजदूर वर्ग है, चूकि उन्हें महिला होने के कारण, दोहरे शोषण का शिकार बनाया जाता है। जिसका सबसे बड़ा कारण उदारीकरण के बाद की अर्थव्यवस्था है जिसने विश्व बाजार के रास्ते खोल दिये और लोग भौतिक सुख को पाने के लिए विकल हो उठे। जिससे महंगाई बढ़ी फिर पुरुष और महिला दोनों को काम करने की जरूरत हो गई जिससे ज्यादा से ज्यादा धन अर्जित किया जा सके। जिसे हम कह सकते हैं कि महिलाओं के लिए, उदारीकरण के बाद की अर्थव्यवस्था बहुत कठोर साबित हुई है।

महिलाओं घर-खर्च चलाने का दबाव बढ़ा है, क्योंकि ‘गृहस्थ’ होने से जुड़ा उपभोग का पैमाना ऊंचा उठ गया है साथ ही, अनौपचारिक क्षेत्र जहां काम के घंटे, पारिश्रमिक, सेवा-शर्तें आदि फिकस्ड नहीं होती है। असंगठित क्षेत्र की महिलाओं को आम तौर पर प्रसूती के बाद कोई छुट्टी नहीं मिलती। उनके रोजगार की कोई सुरक्षा नहीं होती इसलिए उनके रोजगार जाने का खतरा मंडराता रहता हैं। उन्हें उनके काम के अनुसार न्यूनतम वेतन नहीं मिलती, और न ही अतरिक्त काम लेने की अवस्था में कोई मेहनताना मिलता है। वस्त्र उद्योग में महिलाओं को जबरदस्ती ओवर टाइम करना पड़ता है और जरूरत में भी छुट्टी नहीं मिलती।

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असंगठित क्षेत्र में कार्य करने वाली जितनी महिलाएं है उनकी पारिवारिक स्थिति बेहतर नहीं है जिसके कारण उन्हें वस्त्र उद्योग में मजूरी करनी पड़ती है। इसके बाद हम बात करें संगठित क्षेत्र की सरकारी महिला स्वास्थ्य कर्मचारियों की काम के हालात बहुत दयनीय है। ‘आशा ‘ अर्थात ( एक्रेडिटेड सोशल हेल्थी एक्टिविस्ट) कार्यक्रम के तहत गांवो की महिलाओं को सरकारी स्वास्थ सेवाओं की जानकारी देने तथा सरकारी स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया कराने का काम इन सरकारी महिलाओं स्वास्थ्य कर्मचारियों द्वारा लगभग मुफ्त में करवाया जाता है।

देश भर में कई लाख महिलाएं इस आशा कार्यक्रम के तहत निम्न वेतन पर काम करने को मजबूर है इससे इतर कार्यक्षेत्र पर महिलाओं का प्रतिदिन उत्पीड़न होता है, परन्तु अधिकतर महिलाएं नौकरी खोने के डर से आवाज नहीं उठा पाती हैं। इस उत्पीड़न को खामोशी से झेलती है। महिला मजदूरों के लिए कोई आवाज़ भी उठता है तो आवाज़ मोर्चे पर आकर हमेशा थम जाती है क्योंकि वंचित महिलाओं में एकजुटता नहीं है, उन्हें एकजुट करने वाले लोग नहीं है, अक्सर वे अपने अधिकार भी नहीं समझतीं उन्हें अधिकार-चेतस् बनाने के प्रयास भी नहीं किया जाता हैं। जिन्हें ये सब करना हैं, वो लोग अब सिर्फ मध्यवर्ग के बारे में सोचते हैं।

हमारा राष्ट्रवाद मध्यवर्गीय राष्ट्रवाद बनकर रह गया है, और राजनीति भी उसी की नुमाइंदगी कर रही है। मजेदार बात ये है कि इतना बड़ा बदलाव हो गया लेकिन हमारी फिक्र में ये कभी उतर ना सका।

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