नेताओं और माफि़याओं के गिरफ्त में प्राकृतिक संपदाएं

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हमारा देश आज पुरी तरह से खनन माफियाओं के गिरफ्त में आ चुका है 

आज चारों और खनन माफियों की भरमार है शायद ही हिन्दुस्तान का कोई कोना बचा हो जहाँ तरह-तरह के खनन माफियाओं का गुंडा राज न फैला है। हमारे देश की प्राकृतिक संपदाओं की बात करें तो आज यह पूरी तरह से देश के नेताओं और माफियाओं के कब्जे

में है, जिसे यह लोग अपने फायेदे के लिए अपनी मर्जी से दोनों हाथों से लुटा कर देश को विनाश की और ले जाने में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते। इनकी ये प्राकृतिक संपदाओं पर मनमानी और लालच का ऐसा पेहरा है कि खनन के खिलाफ जो भी इनके आड़े आया उन्हें इन माफि़याओं ने अपने रास्ते से हटाने के लिए

 जान से मरवाने में भी देरी नहीं की। इस खेल में सत्ता से सड़क तक के लोग शामिल हैं। सच तो यह है कि करप्शन से भिड़ने वालों को सजा मिलती है। भ्रष्ट नेता ही नौकरशाही का राजनीतिकरण करते हैं और अगर किसी ने आगे बढ़कर इनके खिलाफ खड़ा हुआ तो उसे अपने जान से हाथ धोना पड़ा, और न जाने आने वाले समय में ऐसे कितने ही ईमानदार अधिकारियों को अपने ईमानदारी की किमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ेगी।

 कहने का तात्पर्य यह है कि कहीं कोयला माफिया, कहीं रेत माफिया, कहीं शराब माफिया? कहीं तेल माफिया, जंगल माफिया, लड़की माफिया, पहाड़, खनिज माफिया और माईनिंग माफियाओं का जाल तो पूरे देश में इस कद्र बिछ चुका है। जिसमें इस देश के नेताओं का भी पूर्ण रूप से योगदान मिल रहा है जिसके बूते इन माफियाओं को मनमर्जी करने की हिम्मत आती है यह हिम्मत देने वाले और कोई नहीं हमारे देश की कुर्सी पर विराजमान देश को लुटवाने वाले यह भ्रष्ट नेता ही हैं। जो इस देश की संपदाओं पर अपनी नियत खराब करे बैठे हैं। 

 अभी हाल में यह तथ्य प्रकाश में आया है मनमोहन सिंह के कार्यकाल में देश में कोयला आवंटन के नाम पर करीब 26 लाख करोड़ रुपये की लूट हुई और सारा कुछ प्रधानमंत्री की देखरेख में हुआ क्योंकि यह मंत्रालय उन्हीं के पास है। इस महाघोटाले का राज है कोयले का कैप्टिव ब्लॉक, जिसमें निजी क्षेत्र को उनकी मर्जी के मुताबिक ब्लॉक आवंटित कर दिया गया। इस कैप्टिव ब्लॉक नीति का फायदा हिंडाल्को, जेपी पावर, जिंदल पावर, जीवीके पावर और एस्सार आदि जैसी कंपनियों ने जोरदार तरीके से उठाया। यह नीति खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की दिमाग की उपज थी।

अभी तो यह कोयला खनन का मामला है जो इतना तूल पकड़े हुए है, और बढ़-चढ़ कर लोगों के सामने आया है, तो विपक्ष को हंगामा करने का मौका भी अच्छा मिल गया है, जिसके बूते पर विपक्ष के नेता राजनैतिक दांव पेंच खेल रहे हैं। वरना न जाने ऐसे कितने ही खनन के मामले हैं जो यह साबित करते हैं कि किस तरह से देश के भ्रष्ट नेताओं का सहारा लेकर माफियाओं का प्राकृतिक संपदाओं पर बिछाया हुआ जाल देश को खोखला कर रहा हैं।

यह बेखौफ माफिया देश के संसाधनों को दोनों हाथों से लूटते रहे हैं क्योंकि उनके सिर और उनकी कमाई दोनों पर ही राजनेताओं और आला अधिकारियों का आशीर्वाद होता है। केरल में रेड्डी बंधुओं और कर्नाटक के येदिरप्पा की कथा चालीसा इस बात का साक्षात प्रबल प्रमाण है। मध्य प्रदेश में पत्थर उत्खनन और बालू माइनिंग की बात आम है। यह बात कटु सत्य है कि प्रकृति के उत्खनन से लेकर आम जीवन की जरूरतों यहां तक कि दवा दारू और खाने पीने की अधिकांश वस्तुओं पर माफियाओं का अधिकार हो चुका है। जल जंगल और जमीन के मामले में तो स्थानीय निवासियों को विस्थापित करके देश के बहुमुल्य संसाधनों को लूटा जा रहा है। इस विषय में सराकर के पास न तो नीति है न कोई नीयत।

 ईमानदार लोग जो इन माफियाओं के शिकार बने और मार दिये गए

अभी पिछले साल मई 2012 की बात है जब रेत माफियाओं ने आई पी. अफसर नरेन्द्र कुमार की हत्या कर दी। अब तो खनन माफिया इतने निडर हो गए हैं कि आज उन्हें किसी का डर नहीं है। यद्यपि आई पी एस अफसर नरेन्द्र कुमार की हत्या के बाद मध्य प्रदेश राज्य सरकार  ने यह निर्णय लिया है कि मध्य प्रदेश के चंबल अंचल में अवैध खनन रोकने के लिए पुलिस व स्टाक फोर्स की मदद विशेष सशस्त्र बल (एस ए एफ) करेगा। नरेन्द्र का कसूर सिर्फ इतना ही था कि वह अवैध उत्खनन के खिलाफ अभियान चला रहे थे, एक जाबांज ऑफिसर की तरह नरेन्द्र ने आखिरी वक्त तक रेत से भरे ट्रक का पीछा किया और अंततः उन्हें कुचल दिया गया।

इससे पहले मंजूनाथ, सत्येंद्र दुबे, ज्योर्तिमय डे, के अलावा भी कितने ही लोग माफियाओं के हाथों मारे जा चुके हैं। जनवरी 2011 में यशवंत सोनादेव को गंडों के झुंड से जला कर मार डाला था। महाराष्ट्र (एडमिनेरूट्रटिव सर्विस) राज्य के नासिक जिले में एडी एम के पद पर तैनात थे उनका कसूर सिर्फ इतना था कि वह एक ईमानदार ऑफिसर थे और केरोसिन माफि़या के खिलाफ जबर्दस्त अभियान छेड़ रखा था। कहा जाता है कि यशवंत माफियाओं के लिए सिर दर्द बने हुए थे। नवम्बर 2005 में भी उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी में मंजुनाथ की हत्या कर दी गई। मंजुनाथ इंडियन ऑइल कारपोरेशन में मार्केटिंग मैनेजर थे। मंजुनाथ ने पेट्रोल माफिया के खिलाफ आवाज उठाई थी जिसके कारण हमेशा के लिए माफियाओं ने उनकी आवाज को ही दबा दिया। 1974 बैच के आई पी एस रणधीर वर्मा झारखंड के धनबाद जिले में तैनात थे। धनबाद में बैंक डकैत के साथ 1991 एनकाउंटर में उनकी हत्या हो गई। रणबीर वर्मा ने भी कोल माफिया के खिलाफ जबर्दस्त अभियान छेड़ा था। इसलिए माफियों ने उनके जीवन को ही उजाड़ दिया।

यही हाल सत्येंद्र नाथ दुबे का भी हुआ। 1994 बैच आई आई टी के सत्येंद्र नाथ दुबे बिहार के गया जिले में नेशनल हाइवे अथॉरिटी ऑफ इंडिया में असिस्टेंट डायरेक्टर के पद पर तैनात थे। सड़क माफियाओं ने 27 नवम्बर 2003 को गया में उनकी हत्या कर दी। बिहार के गोपाल गंज के डी एम पद पर तैनात जी. कृष्णैया को 1994 में भीड़ ने कृष्णैया को सरकारी गाड़ी से खींचकर मारा और बाद में उन्हें जलाकर मार डाला। यहाँ भी राजनैतिक वर्चस्व की लड़ाई चल रही थी। इंडियन पुलिस सर्विस की कल्पना सक्सेना भी इसी कड़ी में एक और नाम है। बरेली शहर में एस पी के पद पर तैनात कल्पना सक्सेना को डिपार्टमेंट में तीन ट्रेफिक पुलिस कर्मचारियों ने सितंबर 2010 में जीप से बांधकर सड़क पर खींचा था। जान तो बच गई लेकिन हाथ खराब हो गया। कल्पना सक्सेना ने ट्रेफिक पुलिस की अवैध वसूली के खिलाफ अभियान छेड़ रखा था।

यहां तक की उत्तर प्रदेश के स्टोन क्रेशर व्यवसायी नीरज की मौत भी खनन माफियों की बदौलत ही हुई थी। नीरज की मौत के तार भी कबरई-महोबा के साथ ही समूचे बुंदेलखंड के पहाड़ों में मनमानी ब्लास्टिंग कर समस्या से जुड़ते हैं।

वस्तुत मनमानी पर आमदा पहाड़ पट्टाधारक इतने प्रभावशाली है कि सत्ता शिखर पर बैठे लोग उनके गैर कानूनी कुकृत्यों पर पर्दा डालने की भरसक कोशिशें करते रहते हैं। प्रभावशाली केबिनेट मंत्री नसीमुद्दीन के नाम की हलचल हुई हालांकि इस बात को नकार दिया गया। हमीर पुर जिले के सुमेरपुर कस्बा निवासी नीरज ने साल 2011 में महोबा जिले के पहरा गांव के द्वारका धीश ग्रेनाइट नाम से स्वेन क्रेशर लगाया था। क्रेशर से लगे पहाड़ का मौदहा के वसीन खान ने पट्टा करा रखा था। मनमानी ब्लास्टिंग के चलन से यह पहाड़ भी अछूता नहीं है। बलास्टिंग से आये दिन लोग डरे रहते हैं। ब्लास्टिंग से होने वाले पत्थरों की बौछार कब कहर बरसा दें कोई नहीं जानता था।

इसी बात को लेकर स्वेन क्रेशर मालिक नीरज पट्टाधारक वसीम खान के बीच विवाद गहराने लगा। बात बढ़ती रही और अन्ततः 14 अगस्त को पहरा से लौटते समय नीरज का शव कानपुर सागर नेशनल हाईवे पर उसकी सफारी गाड़ी में पाया गया। मौत गोली लगने से हुई थी। हालांकि मृतक के पिता रविकांत ने सुमेरपुर थाने में नीरज की हत्या का आरोप लगाते हुए पहाड़ पट्टाधारक वसीम खान समेत मरूआ निवासी मौलाना खान, महेश भदौरिया और विरेन्द्र भदौरिया का आरोपित किया किन्तु थाना पुलिस ने मामले का आत्महत्या कहकर फाइल बंद कर दी। कहने का तात्पर्य यह है कि जब-जब सिस्टम को बदलने और करप्शन को खत्म करने के लिए जिसने भी कदम उठायें उन्हें सरे आम रौंद डाला गया।

मध्यप्रदेश में खनन माफिया की जड़े कितनी गहरी है इसकिा एक अंदाजा पिछले साल हुई आरटीआई कार्यकर्ता शेहला मसूद की हत्या से भी मिला। इस हत्याकांड में हीरा खनन करने वाली ऑस्ट्रेलिया की कंपनी रियो टिंटो का नाम भी उछाला है। कंपनी के खिलाफ जबलपुर हाइकोर्ट में भी पर्यावरण संबंधी मामले लंबित हैं। लेकिन इससे कंपनी के विस्तार पर कोई असर नहीं हुआ, बल्कि उसकी ताकत बड़ ही गई।

कहा जाता है कि कानून के हाथ लंबे हैं लेकिन बात तो तब बनेगी जब हाथों का इस्तेमाल होगा। भारत के प्रत्येक खनिज संपदा प्राप्त राज्यों में अवैध खनन से हाहाकार मचा हुआ है। दोहन चाहे कोयले को हो या पहाड़ों का या पेड़ों का या जल का अथवा तेल भंडारों, लौह अयस्को एवं अन्य सभी खनिज पदार्थों का, माफिया सत्ता की आड़ में चाँदी काट रहे हैं। दरसल माफियों के साथ-साथ अधिकारियों को भी अवैध धन वसूली का स्वाद लग चुका है जिसके कारण जब-जब अवैध खनन को लेकर कोई आवाज उठती है तब-तब किसी ईमानदार की मौत हो जाती है, या उसे मार दिया जाता है, शोर कम होते ही खनन पुनः चालू हो जाता है।

गंगा को भी नुकसान पहुंचाते माफिया

13 जून 2011 को 68 दिनों के अनशन और महीने भर से अधिक समय तक कोमा में रहने के बाद हुई संत निगमानंद की मौत को कौन भूल सकता है? निगमानंद की मांग थी कि कुंभ क्षेत्र को खनन और प्रदूषण से मुक्त किया जाए। गंगा में बने प्राकृतिक द्वीप, जो कि अवैध खनन के कारण नष्ट हो रहे हैं उनकी सुरक्षा के उपाय किये जायें। गंगा के किनारे लगे क्रेशर को हटाने की मांग भी निगमानंद प्रमुखता से कर रहे थे। अनशन के बाद खनन का दर्द इतना बढ़ गया कि अंततः उनकी मौत हो गई। लेकिन सरकार ने उनकी शहादत और उनके आंदोलन दोनों को अनदेखा कर दिया। यूं तो गंगा में हो रहे खनन का विरोध नया नहीं है।

दो दशक पहले जब हरिद्वार सहित गंगा के किनारे बसे अनेक नगरों में निर्माण का सिलसिला तेज हुआ और खनन माफियाओं और बिल्डर लॉबी से मिलकर काम करना शुरू किया तभी गंगा की चिंता करने वाले सामने आने लगे थे। गंगा की स्वच्छता के लिए 1990 में शुरू  किए गंगा एक्शन प्लान के तहत दो दशकों में लगभग 960 करोड़ रूपये खर्च किए गए जबकि 2010 से शुरू किए गए गंगा क्लीन प्लान के तहत अगले दस साल में 2000 करोड़ रूपये खर्च किये जाने हैं। लेकिन दुर्भाग्य की बात तो यह है कि इस 2000 करोड़ में से ’गंगा-क्लीन’ अभियान में यदि 2 करोड़ भी लग जाये तो गनींमत है, क्योंके खनन माफियाओं और सत्ताधारियों की गिद्ध द्रष्टि से इन नोटों को बचाना किसी के वश की बात नहीं, चाहे कितने ही निगमानंद शहादत दें या वह ईमानदार ऑफिसर जिन्हें मौम के घाट उतार दिया जाता है।

भारतीय जन जीवन में पहाड़, नदी, नालों, वन-उपवनों का भले ही देवी – देवताओं तुल्य स्थान रहा हो, लेकिन माफियाओं की द्रष्टि में तो प्राकृतिक संपदाएं उनके लिए धन-कुबेर ही है। अतः उनके चुंगल से इन्हें मुक्त करना बहुत ही दुष्कर कार्य है।

कहने को तो मात्र हरिद्वार में ही प्रतिदिन 20 टन जीवांश 37.5 टन ठोस अपशिष्ट सहित 24 हजार ट्रिलियन लीटर मल-जल सीधे गंगा में बहाया जाता है उसे कैसे रोका जा सकता है। बाबू से लेकर अफसर तक को हफ्ता पहुँचाने वाले दोषी तत्व हमारे समाज और सरकार में दीमक की तरह लग चुके हैं। हमारे वनों और नदियों पर चाहे कितनी ही बड़ी-बड़ी रियोजनाऐं व भारी भरकम राशि खर्च करने की कवायद शुरू की जाये, किन्तु ये तब तक सफल नहीं हो सकती, जब तक खनन – माफियों से सख्ती से नहीं निपटा जायेगा।