अन्नदाता के आँसुओं से भी राजनीति-“किसानो के झूले अब सिर्फ फांसी के फंदे”

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आज देश के अन्नदाता यानी किसानो के ऊपर कई परेशानियां आ खड़ी हो गई है। मौसम की मार से परेशान और पूरी तरह से टूट चुका किसान पिछले कुछ समय से आत्महत्या कि जिस पगडण्डी पर चल रहा है वो अपने आप मे ही बहुत दुर्भाग्यपूर्ण और आँखों को नम कर देने वाला है।

अन्नदाता के प्रति हमारी नीति नियंताओं की संवेदनहीनता का नमूना है। अन्नदाताओ कि आत्महत्या पुरे देश की आत्महत्या के समान है और साथ ही साथ यह एहसास दिलाती है कि देश का पेट भरने वाला किसान मौसम की मार मे आकर अपना ही पेट भरने मे असफल हो गया है।

गजेन्द्र की मौत इसका सीधा उदाहरण है जिसने देश को झकझोर कर रख दिया है। पाँच हज़ार लोगो कि भिहड़ पाँच सौ से ज्यादा पुलिसकर्मी और मंच पर दिल्ली सरकार कि पूरी कैबिनेट की मौजूदगी मे राजस्थान का किसान गजेन्द्र सिंघ अपने दुःख को व्यक्त करने के लिए फांसी के फंदे पर सबके सामने झूल गया और लोग नेता पुलिस सब तमाशबीन बने देखते रहे।

जंतर मंतर पर आम आदमी पार्टी कि रैली उस वक़्त एक दर्दनाक हादसे मे बदल गई , जब रैली मे दौसा जिले के किसान गजेन्द्र सिंह हज़ारो की भीयड मे पेड़ पर चढ़ गया और देखते ही देखते सबके सामने फंदा बनाकर झूल गया। गजेन्द्र ने जो सुसाइड नोट छोड़ा था उसमे फसल बर्बाद होने पर निराशा की कहानी लिखी थी।

न जाने इस वर्ष कितने ही गजेन्द्र सिंह जैसे किसानो ने फसल बर्बाद हो जाने पर खुद को ही खत्म कर दिया।
आज हम जहाँ 21वीं सदी मे दौड़ रहे है वहीँ दूसरी और भारत को विकास का रास्ता दुखाने वाला किसान हताश और निराश होकर आत्महत्या पर आत्महत्या करता जा रहा है । दुःख तोह तब होता है जब एक दर्दनाक मौत पर मरहम लगाने वाले लोग आत्महत्या पर भी राजनीती करने से बाज़ नही आते।

दिल्ली मे,संसद से थोड़ी दूर,सरकार के नाक के नीचे एक किसान कि आत्महत्या हमारी समूची राजनीति के लिए आत्ममंथन का अवसर होना चाहिए पर इस दुःख की घडी मे भी उन्हें राजनीति से ऊपर उड़ते नही देखा गया। राजनैतिक पार्टियां आम आदमी पार्टी को ज़िम्मेदार मान रही है चूँकि ये आत्महत्या आप की रैली मे हुई वही दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने आत्महत्या के लिए पुलिस की निष्क्रियता को जिम्मेदार बताया और बची कुची राजनेतिक कसर आशुतोष के बेतुके ब्यान ने पूरी कर दी।

भारत मे किसानों को सबसे बड़ा माना जाता है क्योंकि यही देश के पेट का ख्याल रखते हैं पर हमारी राजनीति तो मानो सबसे भयावह दृश्य किसानो की जिंदगी को बनाने पर उतर आई है जिसमे किसानों को मुआवजे के नाम पर भीक दे रही हो ।
दस,पंद्रह,पचीस रु के चेक और फिर जैसे तैसे एक किसान को बारह या आठरह हज़ार का चेक मिलता है तो वो बाउंस कर जाता है ऐसे मे ये किसानो के साथ मजाक नही तो और क्या है।

आज राजनीति की मार से कराह रहा किसान उस वक़्त की याद दिला रहा है जब किसानो पर अंग्रेज़ जुल्म करते थे और उसे तकलीफ दे देकर मारते थे ।आज यही कार्य हमारी राजनैतिक पार्टियां कर रही है। लोकसभा और राज्यसभा के दोनों सदनों में इस घटना को लेकर चर्चा का प्रस्ताव रखा गया पर वहा भी चर्चा के नाम पर सिर्फ हंगामा ही सुनाई दिया।

पार्टियां एक दूसरे पर आरोप प्रतिआरोप लगा रही है । चर्चाओं मे और आरोप प्रति आरोप के बीच मार्केटिंग के नए प्रोडक्ट जोड़े जा रहे है जैसे मुआवजा 22 हज़ार मिलना चाहिए , क़र्ज़ माफ़ हो जाना चाहिये और दिल्ली मे अलग अलग राजनैतिक दल की पार्टी प्रमोशन के लिए समय के साथ पार्टी के झंडे टोपी लेकर प्रदर्शन करने के नाम पर मीडिया के कैमरों के सामने कूद आए है लेकिन सवाल और भी गंभीर होता जा रहा है कि

-नेताओ की जिम्मेदारी उस वक़्त कहा गई थी जब गजेन्द्र फ़ाँसी लगा रहा था?
-क्या पुलिस का काम हादसे के बाद ही शुरू होता है ,पाँच सौ पुलिस कर्मी कि जब उस वक़्त जिम्मेदारी नही समझी गयी तो। अब रिपोर्ट दर्ज क्यों की जा रही है?
-जनता मे जो लोग गजेन्द्र के आस पास थे वे क्यों तमासबीन बने देखते रहे?
-मीडिया के वो कैमरे जो इस घटना को रिकॉर्ड कर के लाइव चला रहे थे उन्होंने गजेन्द्र को क्यों नही रोका क्या सिर्फ टी आर पी ही सब कुछ है ?
-राजधानी मे किसान की आत्महत्या क्या अब केंद्र सरकार को थोड़ी संवेदनशील और जिम्मेदार बनाएगी ?